रोटी रूदन
जो उगाते वे रह जाते भूखे
फांके से भूखे- प्यासे सूखे
निवाले न खाते,खाते धोखे
ये अति अंधेर अंधों के देखे
देख मैं रह-रह कर रोती हूं
हाँय ! मैं कैसी अभागी रोटी हूं ?
रोटी कपड़ा मकान के नारे
होगें सिरों पे छत के सहारे
हर हाथ रोटी तन पे कपड़े
वादे ऐसे कभी पूरे ना पड़े ?
वादों की नही पाती कसौटी हूं
हाँय ! मैं कैसी अभागी रोटी हूं?
भूखे पेटों के लिए बहुत बड़ी
कोठी वालों के लिए छोटी हूं
अन्न खेतों में ढेर लगा के भी
बन जाती हिमालयी चोटी हूं
हाँय ! मैं कैसी अभागी रोटी हूं?
पहले ही बडा़ है कष्ट भोगा
क्यों ना भूखे हक पा सकते
भोजन का अधिकार मिलेगा
बरसों से ही यह आशा रखते
दिख जाती है जंगल की आग
नही दिखे भूखे पेट की आग
बुझाने इस भूख की ज्वाला
कचरे के डिब्बे से मैं लौटी हूं
हाँय ! मैं कैसी अभागी रोटी हूं ?
पिस कर आती हूं दो पाटों से
गूंथी हूं थपकी,मुक्के,चांटो से
तेरी पेट की आग बुझाने को
मैं भी तवे की आग मेंं लेटी हूं
हाँय ! मैं कैसी अभागी रोटी हूं ?
होगें चाँद-सितारे तेरी मुठ्ठी में
मंगल घूम आएगा तू छुट्टी में
समा देगा ये दुनिया लोटी में
पर भूख मिटेगी बस रोटी में
सबकी रोटी मेहनत की होती
भूखा माॅगे रोटी ना कि मोती
फिर क्यों कहे हराम की रोटी
सुनती क्यों मैं ये खरी-खोटी हूं
हाँय ! मैं कैसी अभागी रोटी हूं?
विश्व भूख के सूचकांक में
सौ-सौ देश हैं निचले अंक में
यह सुन-सुन कर मैं रोती हूं
भूख नही मिटी है भूखों की
हाँय ! कैसी अभागी रोटी हूं?
आर्थिक महाशक्ति या विश्वगुरु
ये पाँच ट्रिलियन की दौड़ शुरू
ये सपनों के आगे बहुत छोटी हूं
हाँय ! मैं कैसी अभागी रोटी हूं?
~०~
मौलिक एंव स्वरचित : कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या-१९ .जीवनसवारो,जून २०२३