रोटी पर शाइरों के लाजवाब शे’र
संकलनकर्ता: महावीर उत्तरांचली
(1.)
डाल दीं भूके को जिस में रोटियाँ
वह समझ पूजा की थाली हो गई
—नीरज गोस्वामी
(2.)
देखीं जो एक ओर बिखरी-सी बोटियाॅं
कौओं की चोंचों से छूट गईं रोटियाॅं
—रमेश प्रसून
(3.)
है मुश्किल दौर सूखी रोटियाँ भी दूर हैं हम से
मज़े से तुम कभी काजू कभी किशमिश चबाते हो
—महावीर उत्तरांचली
(4.)
बे-वसवसा ग़रीबों पे भी हाथ साफ़ कर
मिल जाएँ तो जवार की भी रोटियाँ न छोड़
—शौक़ बहराइची
(5.)
दो रोटियाँ नहीं न सही एक ही सही
इस पर ही सब्र कर कि ज़माना ख़राब है
—शबाब ललित
(6.)
दूसरों की रोटियाँ जो छीन ले
ऐसा बंदर साथ होना चाहिए
—टी एन राज़
(7.)
वही रोटियाँ जिन से छीनी गई हैं
अगर उठ खड़े हों तो कैसा रहेगा
—वलीउल्लाह वली
(8.)
फ़न की ख़िदमत रोटियाँ देती नहीं
फ़न की ख़िदमत छोड़ कर दफ़्तर चलो
—शबाब ललित
(9.)
कपड़े और रोटियाँ मिलीं मगर
मसअला अभी भी है मकान का
—इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’
(10.)
उस पे कल रोटियाँ लपेटे सब
कुछ भी अख़बार से नहीं होता
—महावीर उत्तरांचली
(11.)
दो रोटियाँ नहीं न सही एक ही सही
इस पर ही सब्र कर कि ज़माना ख़राब है
—शबाब ललित
(12.)
दूसरों की रोटियाँ जो छीन ले
ऐसा बंदर साथ होना चाहिए
—टी एन राज़
(13.)
वही रोटियाँ जिन से छीनी गई हैं
अगर उठ खड़े हों तो कैसा रहेगा
—वलीउल्लाह वली
(14.)
फ़न की ख़िदमत रोटियाँ देती नहीं
फ़न की ख़िदमत छोड़ कर दफ़्तर चलो
—शबाब ललित
(15.)
‘सबीन’ अक्सर मैं दस्तरख़्वाँ से उठ जाती हूँ बिन खाए
किसी भूके के काम आ जाएँ शायद रोटियाँ मेरी
—ग़ौसिया ख़ान सबीन
(16.)
लगता है जैसे घर में नहीं हूँ मैं क़ैद हूँ
मिलती हैं रोटियाँ भी जहाँ पर गिनी हुई
—मुनव्वर राना
(17.)
यहाँ तो सब की ख़्वाहिश एक सी है रोटियाँ, सिक्के
मेरे युग में नहीं ख़्वाब-ए-जवानी माँगने वाले
—मंज़र भोपाली
(18.)
इन को मेरे नसीब में लिख दो
चाँद सी रोटियाँ बना ली हैं
—साजिद प्रेमी
(19.)
ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं
ये एक दूजे को दिन भर पकड़ते रहते हैं
—गुलज़ार
(20.)
रोटियाँ ईमान की, खाएँ सभी अब दोस्तो
दाल भ्रष्टाचार की, हरगिज न गलनी चाहिए
—महावीर उत्तरांचली
(साभार, संदर्भ: ‘कविताकोश’; ‘रेख़्ता’; ‘स्वर्गविभा’; ‘प्रतिलिपि’; ‘साहित्यकुंज’ आदि हिंदी वेबसाइट्स।)