रे कश्मीर ! तू अपना कब बनेगा ?
दिल में तेरे दीदार की तमन्ना है ,
मगर क्या करूं तुझ पर दहशत गर्दों का पहरा है ।
कैसे मिलूं मैं तुझसे ए जन्नत ए कश्मीर ,
तुझ पर लगा मजहबी नफरतों का दाग गहरा है।
तू है तो बेशक मेरे वतन के सर का ताज ,
मगर तेरे चेहरे पर किसी अजनबी का चेहरा है ।
जाने क्यों तू अपना होकर भी बेगाना सा क्यों है ?
बस ! यही गम दिल को हमारे साल रहा है ।
तू हमारा ही कश्मीर है न या किसी दुश्मन का,
मगर तुझसे रिश्ता तो कई जन्मों / युगों का रहा हैं।
तू वापस हमारा अपना कब बनेगा रे कश्मीर !
यह शायर ! तेरी पनाहों में आने को तरस रहा है ।