रेत पर मकान बना ही नही
रेत पर मकान बना ही नही
वो शक्स मेरा बना ही नही ।
उस मुकदमा को जीतते कैसे,
हमारे साथ कोई गवा ही नही ।।
अलग रास्ते से गुजर के आए वो
अलग मौसम का समा लाए वो ।
जिस बीमारी ने घेरा है मुझको,
उस रोग की कोई दबा ही नही ।।
मेरे हक में ऐसी कोई दुआ नहीं
दर्द ए दिल का कोई समा नही ।
उसी की दिल मैं चाहत है जो ,
मेरी जिन्दगी में लिखा ही नही।।
था चलचित्र जिसका दिल में बसा
वह शख्स जहन से गया ही नहीं ।
इस चित्र में लगी थी जिंदगी मेरी
जो चित्र पूरा छपा ही नहीं…..।।
तमाम ए जिंदगी रास्तों मै गई
मिल ना सके हमें मंजिल कोई
ना हकीकतों से थे रूबरू हम
दिल की हसरतों का पता ही नही
✍️कवि दीपक सरल