रूह
जिस्म ऐ माटी में इस रूह को डालता कौन है,
बनाकर इन पुतलों को ज़मी पर पालता कौन है,
मिलाकर हवा पानी आसमाँ आग पृथ्वी को,
वक्त वक्त पर ख़ुशी और गम में ढालता कौन हैं,
बचपन से बुढ़ापे तक के इस अनोखे सफ़र में,
ठोकर जब कभी लगे तो वो सम्भालता कौन है,
तमाम नस्ल के रंगों में रहगुजर उस “राही” को,
जानने की चाहत में अब यूँही खंगालता कौन है।।
राही अंजाना