रूह कब्ज करो हथेली पर जान को उतारो
रुह कब्ज करो, हथेली पे जान को उतारो
रु-ए-जमीं पर कभी आसमान को उतारो
हम अर्जी देकर थक चुके हैं अब तो कभी
नक्शे कागज पर हमारे मकान को उतारो
मार लो दो चार चांटे कहीं आड़ मे जाकर
खुली सड़क पर ना हमारे मान को उतारो
कश्तियाँ दरिया की तह मे जाकर धंस गईं
किनारो की जिद थी कि तूफान को उतारो
जुबान दी है तो जुबां से ना पलटो “आलम” ”
खरा अपनी हर बात पर,जुबान को उतारो
मारूफ आलम