रूबरू न कर
ऐ वक़्त -ए -नादान मुझे हूबहू न कर
फिर से मुझे आईने के रूबरू न कर
किस्सा है पुराना के अनजान था खुद से
मुझसे आँखें मिलवा के मुझे फिर शुरू न कर
कहना ही है तो कह ले अच्छा – बुरा मुझे
मेरी बात छेड़कर किसी से गुफ़्तगू न कर
खोना ही चाहता था मुझे तूँ तो हर्फ़ में
मिल ही गया तो खामखा मेरी जुस्तजू न कर
मैं तुझपे यकीं करुँ इतना नादान भी नहीं
मुझसे अपनेपन की अभी आरजू न कर
नापाक जान कर के मुझे छू लिया है तूँ
अब जाने भी दे यार फिर झूठा वजू न कर
-सिद्धार्थ गोरखपुरी