रूठ लो
कुछ रास्तों की अपनी जुबां होती है,
कोई मोड़ चीखता है,
किसी कदम पर आह होती है…
पूछे ज़माना कि इतने ज़माने क्या करते रहे?
ज़हरीले कुओं को राख से भरते रहे,
फर्ज़ी फकीरों के पैरों में पड़ते रहे,
गुजारिशों का ब्याज जमा करते रहे,
हारे वज़ीरों से लड़ते रहे…
और …खुद की ईजाद बीमारियों में खुद ही मरते रहे!
रास्तों से अब बैर हो चला,
तो आगे बढ़ने से रुक जाएं क्या भला?
धीरे ही सही ज़िंदगी का जाम लेते हैं,
पगडण्डियों का हाथ थाम लेते हैं…
अब कदमों में रफ़्तार नहीं तो न सही,
बरकत वाली नींद तो मिल रही,
बारूद की महक के पार देख तो सही…
नई सुबह की रौशनी तो खिल रही!
सिर्फ उड़ना भर कामयाबी कैसे हो गई?
चलते हुए राह में कश्ती तो नहीं खो गई?
ज़मीन पर रूककर देख ज़रा तसल्ली मिले,
गुड़िया भरपेट चैन से सो तो गई…
कुछ फैसलों की वफ़ा जान लो,
किस सोच से बने हैं…ये तुम मान लो,
कभी खुशफहमी में जो मिटा दिए…वो नाम लो!
किसका क्या मतलब है…यह बरसात से पूछ लो,
धुली परतों से अपनों का पता पूछ लो…
अब जो बदले हो इसकी ख़ातिर,
अपने बीते कल से थोड़ा रूठ लो…
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