रूठती वो रही हम मनाते रहे ।
ज़िंदगी में कई मोड़ आते रहे,
हम मग़र हर समय गुनगुनाते रहे ।
गीत में ढल गई ज़िंदगी की तपन,
ख़ुद को’लिखते रहे और सुनाते रहे ।
रेत से ढह गए स्वप्न के वो महल,
जो महल नींद में हम बनाते रहे ।
हारना जीतना खेल तक़दीर का,
रूठती वो रही हम मनाते रहे ।
माफ़ करना मुझे मैं तो’ ‘अंजान’ हूँ,
दोष मेरे मुझे वो गिनाते रहे ।
दीपक चौबे ‘अंजान’