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9 Feb 2018 · 1 min read

रूठती वो रही हम मनाते रहे ।

ज़िंदगी में कई मोड़ आते रहे,
हम मग़र हर समय गुनगुनाते रहे ।

गीत में ढल गई ज़िंदगी की तपन,
ख़ुद को’लिखते रहे और सुनाते रहे ।

रेत से ढह गए स्वप्न के वो महल,
जो महल नींद में हम बनाते रहे ।

हारना जीतना खेल तक़दीर का,
रूठती वो रही हम मनाते रहे ।

माफ़ करना मुझे मैं तो’ ‘अंजान’ हूँ,
दोष मेरे मुझे वो गिनाते रहे ।

दीपक चौबे ‘अंजान’

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