“रुदन”
“रुदन”
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पुरानी याद के धुँधले
कदम जब राह में आते
कसक मन में रुदन करती
उन्हें हम चाह में पाते।
कहूँ कैसे ज़माने से
जुबाँ पर आज पहरे हैं
भरा है दर्द सीने में
समेटे ज़ख्म गहरे हैं।
ठिठुरती सर्द रातों ने
जगाया स्वप्न में खोया
अगन बढ़ती गई तन की
झुका पलकें बहुत रोया।
भिगोया रात भर तकिया
बुझी ना प्यास नयनों की
फिसलती चाँदनी हँस दी
दिलाकर याद अपनों की।
ढह गए प्यार के सपने
बिछे जब शूल राहों में
जली अरमान की बस्ती
रहे ना फूल बाहों में।
मरुस्थल बन गया जीवन
सुलगती रेत छाई है
कहाँ जाऊँ बता दे तू
रुदन दिल में समाई है।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका- साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी (मो. -9839664017)