रुतबा
रुतबा
पंडित राम भरावन शुकुल के बड़े की शादी तय हुई और शादी की तिथि पास आने पर जब उनके घर में मांगलिक अनुष्ठान होने आरंभ हुए तो उनकी धर्मपत्नी ने मोहल्ले की महिलाओं को गाने-बजाने के लिए आमंत्रित किया।पड़ोस की मिसिराइन ने जब पंडिताइन को कमर में चाबी का गुच्छा लगाए हुए देखा तो कहा कि पंडिताइन “आपका रुतबा अब कुछ दिनों का ही है।” पंडिताइन को कुछ समझ में ही नहीं आया कि मिसिराइन किस रुतबे की बात कर रही हैं, क्योंकि उन्हें कभी भी चाबी का गुच्छा रुतबा नहीं लगा।जब उनकी सास ने उन्हें ये गुच्छा सौंपा था तो कहा था, ” बहू! आज से इस घर की जिम्मेदारी तुम्हारी, मैं अब इस जिम्मेदारी से अपने आपको मुक्त करती हूँ ।” पंडिताइन ने भी यही सोच रखा था कि जब घर में बहू आ जाएगी तो उसे इस चाबी के गुच्छे के रूप में घर की जिम्मेदारी सौंपकर आजाद हो जाएँगी।
मिसिराइन की बात का जवाब देते हुए पंडिताइन ने कहा- “एक न एक दिन तो सबका ही रुतबा समाप्त होता है।इसमें कौन-सी नई बात है। जो समय रहते चेत जाता है ,उसकी इज्ज़त बनी रहती है।जो नहीं चेतता उसका रुतबा और इज्ज़त दोनों छिन जाते हैं।”
बेटे की शादी के बाद जब बहू घर आई तो पंडिताइन ने बहू की मुँह दिखाई की रस्म के लिए मोहल्ले की औरतों को बुलाया और अपने रिश्तेदारों और सभी मुहल्ले की औरतों के सामने अपनी बहू को चाबी का गुच्छा बहू को सौंपते हुए कहा,” बहू आज से इस घर की जिम्मेदारी तुम्हारी। ये लो ,इसे संभालो। मुझसे अब बुढ़ापे में जिम्मेदारी का बोझ उठाया नहीं जाता।”
पंडिताइन के इस व्यवहार को वे सभी महिलाएँ हतप्रभ हो देख रही थीं जो चाबी के गुच्छे को रुतबा मान रही थीं पर पंडिताइन के चेहरे पर गजब की संतुष्टि और आजादी का अहसास था।
डाॅ बिपिन पाण्डेय