” रुढ़िवादिता की सोच”
” रुढ़िवादिता की सोच”
पैर पसारती रुढ़िवादिता का समाज में
आज भी तमाशा दिखे क्यों निराला है ?
नवयुवक और पढ़े लिखे भी नहीं छूटते अछूते
रुढ़िवादिता से ऊपर एक आध ही विरला है,
मां बाप रहते खुश खूब सुनकर कि
दामाद बेटी का बहुत ख्याल रखता है
लेकिन जब बात आती बहू का साथ देने की
तब क्यों बेटा जोरु का गुलाम कहलाता है ?
नर घूम-घूम कर हर जगह जुबान चलाए
फलां स्त्री डरती नही वह बहुत बोल्ड है
घर में पत्नी जब करे सवाल जवाब तो
बोल मत ज्यादा कहे तब सोच क्यों ओल्ड है ?
खेल कर जब लडकियां देश को पदक दिलाती
हर नर तब प्रसन्न होकर फूले नहीं समाता
खुद की बेटी जब जाने लगे ट्यूशन तब टोके
चल बैठ मेरे स्कूटर पर क्यों अकेली नहीं भेज पाता ?
कैसे होगा सुधार ऐसे हमारी संकीर्ण सोच का
निज बहन, बेटी के मामले में जब नर संकुचाता है
मन तो करता है खुल कर रहने का उसका भी, लेकिन
देख कलयुग की हालत बेचारा सहम जाता है।