रुक्मणी
रुक्मणी
कितने युग पीछे छूट गईं हो
सच कहूं
तो कभी तुम्हारी याद भी नहीं आती
पर आज
प्रेम और कर्म को ढूंढ़ती
नारी की बात सोचते
यकायक तुम
मेरे चेतन में उभर आई
उस उजली सुबह में
जब तुम
पद, धन , यहां तक कि
स्वजनों का आशीर्वाद त्याग
केशव के साथ
रथ पर सवार हुई
लम्बी , अन्जान, डगर पर
तो आत्मविश्वास
के अतरिक्त
तुम्हारी मुठी में क्या था ?
शशि महाजन – लेखिका