रुके हो क्यों !
रुके हो क्यों ?
अभी तक
खोते साम्राज्य,
ध्वस्त पताकाएं,
खंड-खंड होते स्तम्भ,
धुंधली दिशाएं !
नहीं दीख रहा !
दग्ध ज्वालाएं ,
दहकती विभीषिका
प्रकृति विक्षिन्न ,
निकृष्ट अधम विकृतियों की व्यापकता,
घनीभूत पीड़ा सर्वत्र करूण पुकार,
बर्बरों की पशुता साकार !
लूटता समाज , लूटती गलियां
लुटती सौम्य प्रकृति लुटती कलियां
धुंधलाती परिवेश ;
हाय ! कराहता देश !
क्यों हो स्तब्धित –
और देखने को है दंश ,
भयावहता पूर्ण विध्वंस !
✍? आलोक पाण्डेय