रुकता समय
जब जिंदगी से आगे समय पाता हूं।
भागते समय साथ मैं भाग जाता हूं।।
फिलहाल जब गांव अपने जाता हूं।
ये समय वहीं पर ही रुका पाता हूं।।
वही मिट्टी-गारे का वो पुराना मकान।
देता था नर्म आराम मिटाता थकान।।
हमारी जड़ हमारे जहां का ये निशान।
करे हर कोने से बीते वक्त का बखान।।
वही लाल मिट्टी से लीपा-पुता चूल्हा।
आज लगता जैसे बाराती बिन दूल्हा।।
घर ही नही खुशीयों की थी खुली दुकान।
कभी घर था पर आज रह गया मकान।।
वो छोटी-सी बैठक छोटा-सा छज्जा।
टंगे भुट्टे,पोटलियां करती थी सज्जा।।
वही छोटे आंगन से बड़ा आकाश।
दिखा देता था वो मेरा प्रियप्रवास।।
देहरी पर अपने गांव के घर की।
शांति मिलती थी दुनिया भर की।।
न कोई बात चिंता ना ही डर की।
छांव दे देती टपकती छत सर की।।
वो सारा गांव-गली का घर-संसार।
वो भावों-अभावों का लगा अंबार।।
दर्द की सिसकी खुशी की झंकार।
दुखों में भी सना रहता मीठा प्यार।।
जब भी मैं देखता हूं सारा घर-गांव।
चौथारे की धूप,पीपल की वो छांव।।
जैसे थमे हो वही कहीं समय के पांव।
ये समय भी रुका लगता है मेरे गांव।।
~०~
मौलिक और स्वरचित: कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या:०७ -मई २०२४-©जीवनसवारो