रीढ़…
इस दरख़्त की हर शाख, झुकी- झुकी सी है
हर एक पत्ते की साँस, रुकी – रुकी सी है…
रात तेज आँधी गुज़र के गई, पहलू से
सुबह के सूरज से इसे, बेरुखी- बेरुखी सी है…
इससे लिपटी रही, एक बेल जो हमेशा
हिज्र की रात के बाद, वो बिखरी- बिखरी सी है…
कुछ चाहत थी बाकी, कुछ बाकी थी आशाएँ
जो खड़ा है, आस अब भी थमी-थमी सी है…
मगर उस लता की तो, कोई रीढ़ ही नहीं ‘अर्पिता’
हाँ दरख़्त के पास उसकी, कुछ कमी- कमी सी है…
– ✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता ‘
©®