रीड की वापसी का सफर
किसी का खेत कमाते थे
किसी के बच्चे खिलाते थे
किसी का बागीचा संवारते थे
गाड़ी में सामान चढ़ाते थे, उतारते थे
हम सोते थे पांच कमरों में चार जन
वो एक कमरे में दस दस वक़्त गुजारते थे
सामान का लदा ठेला बाज़ारों में खीचते थे
सब्जी लेलो, आईसक्रीम लेलो गलियो में चीखते थे
कभी लगाई खेतो में पौध कभी काट के फसल खिलाई
ढो के सिर पे रेत,रोड़ी, ईंटे कभी घर कभी इमारत बनाई
हमारी जमीन जायदाद के पहरेदार भी थे
कारखानों में मेहनतकश भी थे चौकीदार भी थे
मेहनत के सबसे करीब और कमाई से कोसो दूर थे
मेंहनत कराते दिनरात इनसे हम इन्हें कहते मजदूर थे
बना दिया व्हाइट कॉलर जो कभी धूल चढ़ी रद्दी भी थे
बड़े मिल भूल गए की वो कभी छोटी छोटी खड्डी भी थे
काट दिया मजदूरों को बढ़े हुए नाखुन समझकर
अपाहिज होके ये जाना वो रीड की हड्डी भी थे
उम्मीद हाथ से रेत की तरह फिसल रही है
रूठ कर किस्मत शहरों से नगें पाव निकल रही है
सिर पे गठरी है, ठोकरों में है अर्थव्यवस्था इसके
ये जो भीड़ सड़को के किनारे पैदल चल रही है
हाथ जोड़, पाव पकड़, गले लगा, खुशामद कर
वक़्त है सारी भावनाएं मनाने को झोंक ले
ये मजदूर नही तेरी किस्मत जा रही है रूठ के
कुछ भी कर इंतजाम इन्हें जाने से रोक ले इन्हें जाने से रोक ले…..
—ध्यानू