रिश्तों में पड़ी सिलवटें
रिश्तों में पड़ी सिलवटें,कब निकल पाई है।
हर कोशिश में इक नयी गांठ नज़र आई है।
रिश्ते होते हैं कच्चे धागों से ,झट टूट जाते हैं
तितली से हो, छूते ही रंग ऊंगली में समाते हैं।
तल्खियां रख कर सीने में,निभता नहीं रिश्ता
थामों तमीज़ से तो ,लंबा खिंचता है रिश्ता।
एक नन्हे पौधे जैसी करनी पड़ती है संभाल
धूप छांव से बचा कर देखो ,कैसे हो कमाल।
सर्द लहजे़ छीन लेते हैं , रिश्तों से सुकून
हर आस हर ख्वाब का ,हो जाता है खून।
सुरिंदर कौर