रिश्ते
कभी कभी मैं सोचती हूँ और सोचती
रह जाती हूँ।
क्यों रिश्तों की दीवारें इतनी कमजोर होती
की कोई आकर उनमें सेंधमारी कर जाता।
क्यों छोटी छोटी बातों का मसला बनाकर
रिश्तों को उलझाया जाता
और फिर सुलझाने के क्रम में टूटने जब
लगती है रिश्तों की डोर
उनमें एक गाँठ डालकर मजबूत बनाने की
होती है नाकाम कोशिश
मगर वह गाँठ तो गाँठ ही जो रह जाता ताउम्र
रिश्तों की कसक को याद दिलाने को।
कभी कभी अनायास ही प्रश्न उठते मन में
क्यों स्वार्थपरता इतनी हावी हो जाती
की सही गलत का फर्क मिटाती जाती।
निज स्वार्थ में उलझता ये दिलों दिमाग
सही गलत के फर्क को मिटाता।
और फिर बेवज़ह के तनाव और उलझनें
ना स्वयं के मन में सुकून आता
और न ही स्वयं से जुड़े रिश्तों को सुकून दिला पाता
और फिर रिश्ते बोझ सरीखे महसूस होने लगते।
यूँही कभी देख कर दुनियावी फितरत
बार बार मेरा मन स्वयं से ही प्रश्न करता।
अपनी उलझनें जीवन में स्वयं ही इतनी होती
जिसका हल वक़्त ही निकाल पाता।
फिर बेवज़ह क्यों मन में कड़वाहट घोलकर
इंसान अपने मन को जहरीला बनाता।
जीवन को खूबसूरत बनाने के प्रयास में
क्यों नही वह लगकर
स्वयं के संग सबको खुश करने की कोशिश कर जाता।