फितरत से बहुत दूर
रिश्ते रिसते जा रहे हैं,
जाने कैसे पिसते जा रहे हैं।
अनपढ़ लोग संभाल कर रखते थे,
आज अक्लमंदों से घिसते जा रहें हैं।
सोचता हूँ कभी…
अपनों से मुलाकात करूं,
रूबरू न सही…
फोन पर ही बात करूं।
फितरत देखकर
दुविधा में पड़ जाता मन,
अपनापन निभाने खातिर…
क्या नया ईजाद करूं।
आंखों में स्वार्थ भरे सपने हैं,
फायदा उठाना हो सब अपने हैं।
गरज निकल जाए तो टिली ली ली,
वरना सब कुछ लगे हड़पने हैं।
मूर्खता है ईमानदारी,
शराफत लगे न प्यारी।
जितना लगाओ उतना पाओ,
क्योंकि अपने बने कारोबारी।
पहले लोग कितने गरीब थे,
पर अपनों से बहुत करीब थे।
फितरत से बहुत दूर थे,
बस प्यार से भरपूर थे।