रिश्ते और बदलता परिवेश
वक़्त बदला,रिश्ते बदले,
बदल गया परिवेश।
जिसने चाहा उसने लूटा,
धर अपनों का भेष।
प्रेम सीमित हो गया,
और बना व्यापर।
कभी प्रेम ही होता था,
सब रिश्तों का आधार।
घर का आँगन माटी का था,
पर खुशियों से सराबोर था।
सारे रिश्ते सिमटे जिसमें,
बस अपनों का ही शोर था।
अब आँगन पक्का हो गया,
पर फीके हुए त्यौहार।
अब नहीं बरसती इनमें,
प्यार के रंगों भरी फुहार।
सुख-दुख में सब संग रहते थे,
लिए हाथ में हाथ।
एक-दूजे से छुपती न थी,
किसीके मन की बात।
प्रेम,स्नेह और नैतिक शिक्षा,
जहाँ सब कुछ सिखाया जाता था।
अपनों की मर्यादा का कभी,
घूँघट न सरकाया जाता था।
जाने कहाँ खो गए,
वो बचपन के दिन यार।
दादी-नानी की कहानियों में मिलता था,
राजकुमारी और परियों वाला प्यार।
आज बच्चे सीमित हो गए,
घर की चार दिवारी में।
जीते हैं वो अपना बचपन,
एक छोटी सी अलमारी में।
प्रेम की परिपाटी ने अब,
बदला अपना भेष।
अब पैसों से ही दोस्ती और,
पैसों से ही द्वेष।
लौट आओ अब अपने घर,
जिसकी दीवारें तुम्हें बुलाती हैं।
आज भी जहाँ अपनेपन के बंधन हैं,
और नज़रें उतारी जाती हैं।