“रिश्ता” ग़ज़ल
प्यार का गुल, खिला नहीं होता,
गर वो मुझसे, मिला नहीं होता।
उसने हौले से कह दिया था जो,
काश, हमने सुना नहीं होता।
मुस्कुराता जो ख़्वाब मेँ ही कभी,
कोई उससे गिला नहीं होता।
मुझसे मिलने तो चल दिया था वो,
काश, कोहरा घना नहीं होता।
तर्के-वादा, मुझे, क़ुबूल न था,
रब्त वर्ना, छिपा नहीं होता।
उसकी यादों मेँ ही महसूर हुआ,
जग मेँ ऐसा, क़िला नहीं होता।
मरहबा, उसकी है नवाज़िश का,
वर्ना ऐसा, सिला नहीं होता।
इश्क़, है रूह का रिश्ता “आशा”,
जिस्म यूँ ही, फ़ना नहीं होता..!
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