राह भी हैं खुली जाना चाहो अगर।
राह भी है खुली जाना चाहो अगर,
द्वार छोटा सा मैंने गढ़ा है प्रिय।
तोड़कर कुछ कड़ी अपने संबंध की,
मानकों को भी जीवित रखा है प्रिय।
जाना चाहो अगर राह भी हैं खुली।
………..
कि हारना तो हमारा चयन था प्रिय,
जीत जाना तुम्हारा रहा लक्ष्य है।
असफल से प्रणय को ही स्वीकार कर,
हम ह्रदय पट को खोले हुए हैं प्रिय।
हर तुम्हारे नहीं में सिमट कर रहे,
क्योंकि सीमाएं तुमने हैं बांधी प्रिय।
राह भी हैं खुली जाना चाहो अगर,
द्वार छोटा सा मैंने गढ़ा है प्रिय।
…………….
लेखक/कवि
अभिषेक सोनी “अभिमुख”
ललितपुर, उत्तर–प्रदेश