राह का रोड़ा
हमारी राह में रोड़ा
क़भी ज्यादा क़भी थोड़ा
मिलता जरूर है
बड़ा असमंजस है कि
क्या रोड़े मेरे ही ख़ातिर बने हैं?
क़भी भाग्य ,क़भी वक्त और कभी लोग
सब बारी – बारी से रोड़ा डालते हैं
मैं खुशियों का मोहताज़ हूँ
ऐ क़िस्मत मैं तुमसे नाराज हूँ
मैं बेसुध सा हूँ पड़ा मगर
मैं अपने हौसले का परवाज हूँ
न उड़ते का मन है न उड़ने की हिम्मत
न हक में लोग हैं न हक में किस्मत
बुरा कितना हूँ मैं ये बखूबी जानता हूँ
गुनाह कुछ भी नही उफ्फ ये तोहमत
-सिद्धार्थ