राहें बहारों की कौन देखे हम खिज़ाँ के पाले हुए हैं
राहें बहारों की कौन देखे हम खिज़ाँ के पाले हुए हैं
काँटों से नहीं ख़ौफ़ ज़रा फूलों से हमको छाले हुए हैं
बरसात की तरहा बरस पड़ते हैं जब भी आता है जी में
अश्क़ उठकर दिल से अब आँखों में डेरा डाले हुए हैं
उनके सज़्दे में पेशानी झुकाए शान उँची रखना बंदे
जिनके हाथों पे पाँव रखकर आप बुलंदियों वाले हुए हैं
कौन सी क़िताब है जो बंद रही हो पाठशाला खुली ना हो
ज़माना इल्म से निखरा कहाँ दिल और भी काले हुए हैं
ज़रा इन हवाओं से पूछना वक़्त के साथ फ़िरा करती हैं
किन शहरों में कब और कैसे दर्द-ओ-ग़म के नाले हुए हैं
इंसानियत की खातिर दिल के दरवाज़े हमेशा खुले रख़ना
हवा-ए-उल्फत़ चलती नहीं वहाँ बंद घरों में जाले हुए हैं
बेबसी तड़प उठती है ‘सरु’के जवाबों से मुख़ातिब होकर
क़लम चली है तलवार बनकर होंठों पे जब जब ताले हुए हैं