राष्ट्रोदय
यह राष्ट्र मुझे करता अभिसींचित् प्रतिपल मलय फुहारों से ,
प्रतिदानों में मिले ठोकरों , धिकारों, दुत्कारों से ,
जो लूट रहे मुझको हर क्षण ,उन कायर कुधारों से ,
विविध द्रोहियों के विषबाणों , कुटिलता के कलुषित वारों से |
गाँव ,समाज के लोग असहाय , क्यों नैतिकता फूट रही,
अभी कल तक जन-जन सहाय,क्यों आज सत्यता लूट रही !
है सत्य यही ! डूब रही मही ! विश्वास विविध- विध रूठ रही !
कहना क्या अब नहीं अवशेष, बंधु ! सौभाग्य मनुज की फूट रही !
हो पथ कंटकाकीर्ण, रूप जीर्ण-शीर्ण
करते रहें शत्रु , ह्रदय बहु विविध विदीर्ण ;
निज धर्म हेतू वीर सदा एक बार मरते हैं
राष्ट्र -रक्षा,मानवता खातिर बहुतों वार सहते हैं |
बन्धु निज बान्धव को लूट
किये सौभाग्य देश का फूट,
इतने पतित किये कुकर्म छुट,
कलूटों में कुख्यात, ये कायर! अटूट !
हंसों से है काग श्रेष्ठ, अनाथ हुआ है दया-नाथ,
जिसनें अपनों को खूब लूटा, कलंक लिया अपने माथ,
राष्ट्रद्रोह की हदें पार कर दी,वास्तव में ये ही अनाथ;
सौभाग्य होता ,चरित्रहीनता ! क्षमा करते दीनों के नाथ !
मिले ठोकरों को लेकर , धीर वहीं चलते हैं,
सौम्यता दृढता के सत्य नींव पर, वीर सदा ढलते हैं,
स्वाभिमानी निज धर्मरथी ,आँखों में अरि के खलते हैं ,
त्याग , तपोमय लिए सत्कर्म, राष्ट्रहित, सदा पलते हैं |
असह्यनीय, क्या न किया मुझको भी आज !
सुन-देख डूब रहा था,तथाकथित सभ्य समाज,
खुली लूट मेरी संपदा ना आ सकी किसी को लाज ,
लूटने में साथ बहुत दिया ,प्रशासन औ ग्राम-समाज !
ये कलंकी ग्राम-समाज खड़ा, ग्रामवासिनी भारत माता बेहाल,
गली-गली चाटुकारी करें, नपुंसकता सा हाल,
गोवंश कट रही, रक्तिम धरणी, नहीं वीरता भरी खयाल;
कब तलक लूटोगे अपनों को,
कदाचित् गोवध रोक, दीखा देते तत्काल !
प्रशासन की जय मनाती जनता , सदा सत्य अनुसंधान में,
अपराधियों को दण्डित करने में , मानवता के संधान में ,
किंतु जब बिक जाते यदि , ये अपराधियों के ध्यान में ;
गोवध क्या, कितने निर्दोषों का वध कराते ये हिन्दुस्तान में |
जब जल रहे हों गाँव, जल रहे हों जन-मन,
जलते हों छप्पर-छाजन, और परस्पर भी अंतर्मन,
तब संस्कृति क्यों न लुप्त होगी, दूषित स्वार्थ के खोंटों से ,
गोवंश वध नहीं रूक सकती यदि, सभी बेमौत मरेंगे विस्फोटों से !
सच है जीवन में सबको ‘सत्य’ नहीं मिलता है..
बहुत चोरों को भी झूठ बड़ी खलता है..
किन्तु लोगों को अकूत धन की आस गयी है जाग,
बन्धु भी बान्धव के लूटे धन से खूब मनावे फाग !
सोचें जन ! क्षणभंगुर जीवन की इतनी कलुषित अभिलाषा ,
यदि कहीं गलती से कलूटों को अमर जीवन दे-दें विधाता ?
दूर-दूर तक मानवता की, समरसता जायेगी भाग…
यह स्वर्ण धरा मरघट होगी, चतुर्दिक जलायेगी आग !
पापी पाप छिपाने हेतू बड़ी उपक्रम करते हैं
निज धर्म-कर्म-सत्कर्म छोड ,कुटिल भ्रम भरते हैं
उसी कडी में मध्य निशा को ,संगठित ‘मूझे’ सब घेरे ;
निष्कंटक लूटने हेतू मारने को, किये असफल प्रयत्न के फेरे !
पर मैं अमरता का पोषक, हर द्रोही का शोषक,
हंता शत्रु का, विधि नियामक, कुटिलता का अवशोषक,
काल-कराल,करालाग्नि, त्रिनेत्र ‘शिव’ सा रोषक;
मानवता का मूर्त्तमान, करूणता का विश्लेषक !
अब समर साध रहा समय है , सुविचारों संस्कारों का,
वीरों के बलिदानों पर,निंदित है विकारों का;
अपनी छाती पर अपनी संस्कृति नहीं लूटने देंगे,
गोवंश नहीं कटने देंगे,समरसता नहीं फूटने देंगे |
अब घर सुरक्षित नहीं रहा,अपनों पर चलती अपनों की आरी,
लंपट का चरित्रहीन से हो गयी है यारी ,
यदि कहीं सुसुप्त प्रबुद्ध जन हों ,करें विराट तैयारी,
लूट संस्कृति का बचा लें, मिटा-लें मिलकर घातक बिमारी |
कुछ कुलटों ने समाज में विष व्याप्त कर डाला,
धन खातिर अपना निधान-विधान नष्ट कर डाला ,
यदि कहीं संभव हो,संगठित हो प्रवीर , संभालें;
डूबी नैतिकता के रक्षक बन,मानवता को भी बचालें !
वो व्यथित ,विक्षिप्त आज भी देखने में लगता है…
वही ! वही ! हाँ वही काग जो हंस बन पलता है
लगता है उसकी सनक उसे ले डूबेगी…
दैव दोष,पितृ निराश हर आश सदा टूटेगी ..
भटका हुआ है मनुज देश का काश ! कोई समझाता !
निज समाज का है कलंक , चरित्रहीन ! निष्कलंक यह मरता !
साधु – सज्जन बन छद्म रूप से चढा बहुत, कुंभीपाक नर्क में डाले !
मैं हूँ नालायक से लाचार, कोई इसका अधः गर्त बचाले !
अधः गर्त बचाले !!
अधः गर्त बचाले !!!
अखंड भारत अमर रहे
वन्दे मातरम्
जय हिन्द !
गावो विश्वस्य मातर:
धर्मो रक्षति रक्षित:
©
कवि आलोक पाण्डेय