राम सुग्रीव मैत्री
हे मधुकर मृग खंजन वयनी, तुम देखीं सीता मृग नयनी
खोजत फिरहिं विपिन रघुराई,सिय वियोग दुख सहि नहिं जाई
पंम्पागिरि सुग्रीव वसहिं,बाली के डर माहिं
ऋषि श्राप वश बाली, पंम्पागिरि नहिं जाहिं
किष्किन्धा पहुंचे रघुराई,बाली दूत समझ दोउ भाई
सुग्रीव सहम हनुमान पठाए, ब्राह्मण वेश राम पहिं आए
प्रीत पुरातन कपि पहचानी, प़भु पहचान कंधे वैठानी
राम सुग्रीव मैत्री कराई,भालु कपि आनंद मनाई
बाली मार राज तिलक कीन्हा, सुग्रीव को अभय प्रभु दीन्हा