राम : लघुकथा
जग में घोर निराशा थी,
तात दशरथ को आशा थी।
लेकिन! युक्ति दुराशा थी,
मन में प्रबल अभिलाषा थी।।
पुत्रकामेष्टि यज्ञ हुआ,
यजमान यज्ञ फलित हुआ।
दिन पर दिन व्यतीत हुए।
परिणाम आशातीत हुए।
दशरथ अंगना गूँज उठा
किलकारियों से मन खिल उठा।
दशरथ के वारे-न्यारे हुए।
बालक उनके चार हुए।
शुभ समाचार पाकर नगरी,
जन मन खुशी से चकरी।
कौशल्या के राम हुए
भरत कैकेयी के लाल हुए
लखन शत्रुघ्न सौमित्र हुए।
अवध नगरी शोभा भारी,
जन्में राम यहाँ अवतारी।
खुश थी तीनों महतारी,
भाग्य बजा रहा करतारी।।
ज्यों- ज्यों बाल बड़े हुए
नटखटपन तुतलाना घुटरूँन चलना
देख नगर-परिजन आनंदित हुए।
विश्वामित्र ने बालक मांगे
राजन! रक्षा हेतु राम-लखन,हमें दे दो।
तात मन शंकित हुआ
चले राम साथ लखन सहित।
वन में जा निशाचर मारे।
जनकसुता का समाचार पाकर
चले विश्वामित्र, राम-लखन
वाटिका में मैथिली से भेंट हुई
नयनों का नयनों से सम्भाषण हुआ।
दरबार जनक में भूपेंद्र भारी,
वहाँ मौजूद रावण अत्याचारी।
शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढाये,
उसी गलें सीता वरमाला आये।।
सब भूप मद चूर हुआ
रावण यह देख क्रोधी हुआ
उठा उठाने अहंकार से
शिव धनु हिल न सकी।
अपमानित होकर बैठ गया।
जनक चकित दुखित हुए।
विश्वामित्र ने आज्ञा दी
राम उठ सभा नमित हुए
ध्यान शिव का, कर धनु स्पर्श किया
हुआ भंग धनुष,सीता मन फूल ऊठा।
हुआ थोड़ा हंगामा भारी
सुन परशुराम की ललकारी।
बुला दशरथ ने राम को
सोचा सौपें अब राज को
तय सब था पर मंथरा की कुटलाई ने
राम को वनवास दिया।
वन में सीता हर ली रावण ने,
ली शपथ स्वयंवर में ही रावण ने।
राम- व्यथित व्याकुल हुए
सुग्रीव हनुमान सहायक हुए।
रावण की ललकार मिली
भुजा राम की फड़क उठी।
घनघोर रण कोलाहल उठा
धरा डगमग होने लगी
भीषण रण में रक्तपात
गिरती चपला अशनिपात
खड़ग धार लहू की प्यासी
कट रहे धड़ भुजा मूंड राशि
ओज राम का आज रहा
अवनि को अम्बर झाँक रहा।
कट-कट गिरती भुजा रावण की
मूंड पड़ रहे अस्त-व्यस्त
हुआ किला लंका का ध्वस्त।
उद्धार जानकी का कर राम
लौट आए अयोध्या धाम।
राम ने संसार को
सिखा दिया जीवन का गान।
भाई से भाई का प्यार
माता की आज्ञा शिरोधार्य
पिता वचन का मान रखा।
परिवार समाज देश का महत्व
बड़ा नहीं निज का अस्तित्व
कर्तव्य पथ युगानुरूप विस्तृत
डगमग न होना कर्तव्य से
अधिकार न माँगना बस
कर्तव्य पथ चलते जाना।
न्याय धर्म की शरण बड़ी है
विलासिता मुँह खोल खड़ी है
कर्म धर्म की ही जड़ जीवित है
हर युग में कर्म ही जीवित है।
भाग्य न बदलते अकर्मण्य के।
प्राप्य है सब कर्मण्य को।