‘राम-राज’
‘राम-राज’
जब घर-घर, दीपक जले आज।
हर मन , कर रहे धरम के काज।
सब जन , भक्ति- भाव में डूबे हैं;
क्यों नहीं आता , तब राम-राज।
जरूर ही ज्यादा , खोटा मन है।
दिखावा ज्यादा, व श्रद्धा कम है।
है सबका , शायद स्वार्थी जीवन;
तभी तो, राम-राज दिवास्वप्न है।
बेईमान भी धर्म में हैं , डूबे लगते।
सही नही, उनके ही मंसूबे लगते।
कहीं निगाहे उनकी,कही निशाना;
तब तो राम भी उनसे रूठे लगते।
जिसने भी कष्ट दिया है, गैरों को।
चाहे वो कितना भी पूजे भैरों को।
उस पर माता कभी न खुश होंगी;
फिर राम कहां मिलेंगे, लुटेरों को।
परोपकारी जीवन का ही अंदाज।
हर एक सुख का करेगा आगाज।
शांति भी मिलेगी, जीवन में सदा;
और फिर आएगा, तब राम-राज।
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……✍️पंकज कर्ण
………….कटिहार।।