रामपुर का किला : जिसके दरवाजे हमने कभी बंद होते नहीं देखे*
रामपुर का किला : जिसके दरवाजे हमने कभी बंद होते नहीं देखे*
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रामपुर के किले का एक अलग ही आकर्षण रहा है । हर शहर में किले नहीं होते और किले का जो चित्र हमारे मानस पर राजस्थान के किलों को देखने के बाद उभरता है ,वैसा रामपुर का किला नहीं है।यह न तो ऊँची पहाड़ी पर स्थित है और न ही इसके चारों ओर गहरी खाई है। वास्तव में यह व्यस्त सर्राफा बाजार तथा शहर के बीचोंबीच स्थित है। हमारे घर से इसकी दूरी पैदल की दो मिनट की है।
लेकिन हाँ ! मोटी दीवारें किले परिसर को गोलाई में चारों ओर से घेरे हुए हैं । बड़े और खूबसूरत दरवाजे हैं। एक पूर्व की ओर, दूसरा पश्चिम की ओर। खास बात यह भी है कि इन दरवाजों पर लकड़ी के मोटे ,भारी और ऊँचे किवाड़ इस प्रकार से लगे हुए हैं कि अगर समय आए तो किले के दरवाजे पूरी तरह से बंद किए जा सकते हैं। यद्यपि मैंने अपनी साठ वर्ष की आयु में कभी भी इन दरवाजों को बंद होते हुए नहीं देखा। मेरे बचपन में भी यह किवाड़ जाम रहते थे और आज भी जाम ही रहते हैं । किले के यह दरवाजे जब बने होंगे ,तब जरूर यह इतने बड़े होंगे कि इनमें से हाथी गुजर जाता होगा। लेकिन अब दरवाजे के बड़ा होने का यह मापदंड नहीं है । बड़े-बड़े ट्रक इन दरवाजों से निकलने में असुविधा महसूस करते हैं । दो कारें एक साथ आ – जा नहीं सकतीं।
किले के भीतर बचपन में घूमने – फिरने के तीन मैदान थे । एक वह मैदान है जिसमें मेले लगते हैं और जो आज भी प्रातः कालीन भ्रमण के लिए मुख्य मैदान माना जाता है। यह पहले भी लगभग ऐसा ही था।
दूसरा मैदान हामिद मंजिल अर्थात रामपुर रजा लाइब्रेरी भवन के आगे था ।अब इसे दीवार बनाकर घेरे में ले लिया गया है । पहले केवल फूल – पत्तियों की झाड़ी की चहारदीवारी हुआ करती थी, जिससे अंदर और बाहर अलग परिसर वाला बोध नहीं होता था । रजा लाइब्रेरी के बगीचे में सब लोग घूमते थे। बच्चे खेल खेलते थे तथा कबड्डी आदि भी हम छोटे बच्चे खेलते रहते थे । बचपन में ही हमारे देखते-देखते मैदान में लगी हुई संगमरमर की दो छतरियों में से एक छतरी न जाने कब टूट गई और आज तक टूटी ही है ।
तीसरा मैदान किले के पूर्वी दरवाजे के पास था । यह अपेक्षाकृत छोटा था तथा इसमें भ्रमण के लिए लोग कम ही जाते थे । हाँ ! बच्चे इसमें क्रिकेट खेलते थे । इस मैदान का मुख्य आकर्षण एक अंग्रेज की आदमकद संगमरमर की मूर्ति थी । अंग्रेज स्वस्थ तथा भारी शरीर का था । उसके हाथ में एक कागज रहता था। मूर्ति लगभग पाँच फीट ऊँची बेस पर रखी हुई थी । इस तरह यह अपने आप में कारीगरी का एक सुंदर नमूना था । जहाँ तक मुझे याद आता है ,कहीं भी उस अंग्रेज का विवरण मूर्ति पर अंकित नहीं था । उस समय चर्चा रहती थी कि कि इस अंग्रेज ने न केवल किले का नक्शा बनाया था ,हामिद मंजिल का निर्माण कराया था अपितु रियासत काल की बहुत सी इमारतें उसी के बनाए हुए नक्शे पर बनी थीं। यह एक कुशल आर्किटेक्ट अंग्रेज था ,जिस को सम्मान प्रदान करने के लिए उसकी मूर्ति किले के पूर्वी गेट के नजदीक सुंदर मैदान के मध्य में स्थापित की गई थी। शायद ही कहीं किसी कलाकार को इतना सम्मान किसी रियासत में मिला हो ।
हामिद गेट के शिखर पर एक मूर्ति लगी थी, जिसका धड़ मछली की तरह था तथा चेहरा मनुष्य की भाँति था । इसके हाथ में एक झंडा हुआ करता था। मूर्ति सोने की तरह चमकती थी । हो सकता है कि इस पर सोने का पत्तर चढ़ा हुआ हो अथवा सोने का गहरा पालिश हो । अब इसका रंग बदरंग हो चुका है।
हमारे बचपन तक हामिद मंजिल में सुरक्षा के तामझाम नहीं थे । हामिद गेट के तत्काल भीतर कमरे में पुलिस की चौकी जरूर हुआ करती थी । हमिद मंजिल की सीढ़ियों पर कोई भी जाकर बैठ सकता था। किसी प्रकार की कोई चेकिंग हामिद मंजिल परिसर में प्रवेश को लेकर नहीं होती थी। हामिद मंजिल के भीतर प्रवेश करने पर दरबार हाल तक जाने के लिए जो गैलरी आजकल दिखती है ,वही पहले भी थी ।
मछली भवन के सामने जो रंग महल है, उसके आगे दीवार नहीं खिंची थी । रंग महल के संगमरमर के चबूतरे पर बैठने की स्वतंत्रता थी । सारे रास्ते खुले थे । किला स्वयं में एक परिसर था ,जिसमें विभाजन नहीं हुआ था ।
किले के पश्चिमी दरवाजे (हामिद गेट) के पास एक दुकान पर बच्चों की साइकिलें किराए पर मिलती थीं। प्रति घंटे के हिसाब से दुकानदार साइकिल का किराया लेता था । मैंने तथा दसियों अन्य बच्चों ने वहीं से साइकिलें किराए पर लेकर चलाना सीखा था ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451