रात भर
क्रोध अंतस में उपजे रहे रात भर
हम किसी बात में उलझें रहे रात भर
क्रोध आया था क्यों जानते हम नहीं
इस पहेली के किस्से न सुलझे रात भर
हमने स्वप्न में भी उससे थी तकरार की
थोड़ी बातें भी हो न सकीं प्यार की
गुस्सा आया हमें झट से निकले थे हम
स्वप्न में भीे पास उसके न रुके रात भर
क्रोध अंतस में उपजे रहे रात भर
जिंदगी में वैसे तो भागमभाग है
वक़्त का भी अपना अलग राग है
सुबह उठते ही दिन धुआँ -धुआँ हो गया
शोले जल वो उठे जो सुलगे रात भर
क्रोध अंतस में उपजे रहे रात भर
क्रोध में बोध खो जाना है लाजमी
क्रोध में न जाने क्या कर जाता है आदमी
क्रोध में ही जलना मुझे था लिखा
क्रोध में ही जो डूबे रहे रात भर
क्रोध अंतस में उपजे रहे रात भर
-सिद्धार्थ गोरखपुरी