रात गहराती गई
कविता
रात गहराती गई
*अनिल शूर आज़ाद
भ…डा…म !
एक तेज़ आवाज़ हुई
इस कर्णभेदी स्वर से
अपनी मां से सटकर सोया/एक बच्चा
जागकर रो उठा
एक दूसरे बच्चे की/दूध की बोतल
हाथ से छूट गई
कविता लिखते/एक कवि की
तन्मयता एकाएक….भंग हुई
बिस्तर में कालगर्ल लिए/एक सेठ
घबराकर/ नीचे गिर गया
आतंकियों का हमला समझकर/कुछ पुलसिए
भागकर इधर-उधर छिप गए
गांव की सरहद पर/रो रहा उदास कुत्ता
सहसा चौंककर/चुप हो गया
झींगुरों के मस्त-गायन में
पल भर के लिए/विघ्न सा पड़ा
लेकिन जल्द ही..
बच्चा मां से चिमटकर सो गया
सेठ फिर बिस्तर में हो लिया
पुलसिए पुनः ड्यूटी देने लगे
उदास कुत्ता रोने में रत हुआ
झींगुर फिर से गाने लग गए
रात गहराती गई..
(रचनाकाल : वर्ष 1985)