“रातरानी”
मुझमे जाने कितनी महक समायी,
अरे मैं हूँ रात्ररानी ।
आहट होते ही मचल जाती हूँ,
आकाश तक चली जाती हूँ ।
सुवासित करे जो रोम से प्राण तक,
नेह के भाव में , राग अनुराग में ।
एक फूल हूँ रात के बाग में,
रातरानी और महक एक राग में ।
तुम फलक पर चांद बनकर रोशनी देते रहो,
मैं महकती सी रहूं तेरी रात में ।
बेल, बूटे और फूल बाग सो जाते है सभी,
रातरानी जगे फिर भी रात में ।
डसे काली रात मुझे रात भर,
फिर भी डरती नही रात्ररानी कहे ।
एक व्याकुल प्रतीक्षा एक फूल की,
हाथ पकड़े पवन की कहे ।
चांद, सूरज के सतरंगी रंगों से,
मैं महावर एड़ियों में लगाती रही ।
बाँसुरी के गीत से तुम बुला लो मुझे,
रात्ररानी कहो या कहो चांदनी ।
पांव से शीश तक गीत ही गीत हूं,
एक पागल हृदय की प्रीत हूं ।
रात महके, महक की हो तुम स्वामिनी,
रात हौले से आये मेरी रातरानी ।।
लेखिका:- एकता श्रीवास्तव✍️
प्रयागराज