राज़ की बात
उतरते भादों के बारिश की रात,
उजले आकाश से बूँदों की बौछार,
चुप-चुप सी सड़कों पर पानी की पदचाप
जैसे ये वर्षा भी ढूँढती हो छांँव…
सन्नाटा घर का और भीगी सी रात
चुपके से छिप गयी थी यहीं बरसात
कानों में हौले से बताती कुछ राज़
मुहँ खोलते ही अचानक चुप हो गयी
बादलों के गर्जना से ठिठक कर थम गयी
राज़ की बात आकार होंठों पर जम गयी
घनघोर बारिश में, स्यात कहीं बह गयी
आँखों से टपके थे, कुछ घुले-मिले भाव
डर और बैचैनी थी ज्यों टीसते हों घाव
दिन, माह, साल-साल गिरने का शाप
भीतर तक गीला मन सिमसिमे विभाव
पीठ पर चाबुक जैसे तड़ित जले दाग़
बता कहाँ पायी थी वह, क्यों पायी ये सज़ा?
उस दिन भी राज़ कोई खुल नहीं सका,
भिंचे हुए होंठ से वह फिसल ना सका,
ना मिली वक़्त से दो पल की सौगात
हाय यह भादों वाली राज़ की बात
हाय यह भादों वाली डर भरी रात…