राजसूय यज्ञ
महाशक्ति ने किया हुआ है
राजसूय का भव्य आयोजन।
है कुत्सित मन्तव्य यज्ञ का
एवम् इसका दुष्ट प्रयोजन।
घातक विपुल विविध आयुध का मात्र
पुरूष‚ यह बड़ा प्रर्दशन।
युद्ध मानसिक फैला रक्खा
छवि में इसके खण्डित दर्शन।
डरा रहे हैं दिखा–दिखा कर
नित नूतन वे खोज।
और कि कर सकते हम इसका
चाहें तुरत प्रयोग।
नहीं विकाश मष्तिष्क खण्ड का
किया गया था हायॐ
अरेॐ नहीं निर्माण ज्ञान का
ध्वंस हेतु था हाय ॐ
जहर फैलता जाता क्षण–क्षण
संस्कृति के शुचि आनन पर।
लगा दिया है आग अर्थ का
व्यर्थ हरित मेरे कानन पर।
खूनी पंजा फैल रहा है
फैल रहा आर्थिक साम्राज्य।
अर्थदान का अर्थ है कुत्सित
कुछ और अर्थ इसके सहजात।
फैल रही सारी संसृति पर
छाया काली हे इन्सान।
उपनिवेश–सांस्कृतिक तेज गति से
ढा.ँप रही तेरी पहचान।
सूर्य स्त्रोत शक्ति का सब दिन
साम्य‚समानता का अगुआ।
उत्सर्जित सब ज्ञान‚धातु‚विज्ञान
वहीं से सदा हुआ।
मेरे स्वत्व पर सब्का‚ सब पर
मेरा स्वत्व बड़ा हो।
हो न यज्ञ का मेध‚यज्ञ से
यज्ञ नहीं यजमान बड़ा हो।
हो आर्थिक सहयोग् ‚योग हित
क्रय का छद्म व्यापार न हो।
शुद्ध ऋचा से शुद्ध रहे घर
देखो शस्त्रागार न हो।
नहीं तोप‚बन्दूक लिए है
कभी विपन्नता लड़ी गयी।
शुद्ध हृदय सहयोग ‚श्रम से सदा
सम्पन्नता है गढ़ी गई।
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