राजर्षि अरुण की नई प्रकाशित पुस्तक “धूप के उजाले में” पर एक नजर
प्रिय अरुण की साहित्यिक यात्रा का नया पड़ाव है, आदर्श प्रकाशन,नई दिल्ली से हाल में प्रकाशित उनकी नई पुस्तक “धूप के उजाले में” ।अंशुमान भदोरिया की कलात्मकता से सजा मुख्य आवरण निस्संदेह आकर्षक दिखता है और प्राक्कथन में रणविजय सिंह सत्यकेतु द्वारा खतरों से सावधान करने की बेचैनी पुस्तक को प्रारंभ से अंत तक एक ही दम में पढ़ लेने की जिजीविषा को निश्चित बढ़ा देती है,पर शर्त्त इतनी कि बीच में कोई साजिश न कर दे।
बबूल और नागफनी ने साथ मिलकर
गुलाब की इतनी भर्त्सना की
कि उसे अपनी जड़ों से ही नफरत हो गई
उसकी सुगंधि स्वयं उसे दुर्गंधि लगने लगी।
“ये साजिश नहीं तो क्या है” कविता के माध्यम से आज की राजनीति व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है, जहाॅं गुलाब के विरुद्ध साजिश में बबुल और नागफनी के संग चुप बैठे लोग भी उसी के रंग में रंग जाते हैं। अच्छाई के विरोध में लोग तटस्थ भी कहाॅं रह पाते हैं ? बिना देर किये बुरे लोगों की जमात में शामिल हो जाते हैं और जिसका परिणाम तो बिल्कुल साफ है।
“सुनामी” नाम की कविता भौगोलिक सुनामी और परिस्थितिवश मानव के मन में उठ रहे सुनामी के साथ तारतम्य स्थापित कर थोड़ा कुछ बचे हुए में ही पूर्ण निर्माण की सकारात्मक कल्पना के साथ आगे बढ़ती है।
शीर्षक कविता “धूप के उजाले में” किसी भी परिस्थिति में विकृत दृश्य की वकालत करने की बात तो नहीं ही करती है। सब कुछ पारदर्शी नजर से साफ-साफ देखने की बात करती है। दूसरी ओर विज्ञापन पर आधारित बाजारवाद की दुनिया में “व्यवस्था” कविता वर्तमान समय में प्रचलित व्यवस्था में लोगों से सब कुछ छीन लेने के बाद भी उसे आश्वस्त करने का अंतिम दम तक का प्रयास है कि सब कुछ तो तेरा ही है और लोग इसी भ्रमजाल में आशावान होकर पूरी उम्र ही गुजार देता है।
“मेरा हाल” कविता निर्मम कटाक्ष है,जो रोशनी और अंधकार के मध्य हो रहे जंग में साफ-साफ घोषणा है।
पर एक बात जो समझ में आई साफ-साफ
तुम्हारे भीतर भी अंधकार है अत्यंत घना
अंधभक्ति कविता बिना किसी तर्क के मनुष्य को किसी के प्रति ऑंख मूंद कर विश्वास का भाव रखने की प्रेरणा पर महीन कटाक्ष है,जहां अपनी भक्ति की अतिरेक भावना के प्रर्दशन को मनुष्य सुरक्षा कवच के रूप में इस्तेमाल करता है।
यह एक जंग लगे लोहे के समान है
जहां खुद लोहा इसे अपना सुरक्षा कवच समझता है।
वहीं दूसरी ओर वध कविता हिंसा के पथ पर चलकर अपने अराध्य के प्रति समर्पण की भावना है,जो बलि के नाम पर असमय ली जाने वाली निर्दोष जान और सहज होने वाली मृत्यु पर तंज कसती है।
इसके साथ ही ढ़ेर सारी ऐसी कविताएं भी इस संग्रह में हैं, जो अपने में अलग-अलग अर्थ समाहित कर पठनीय है।
राजर्षि अरुण वर्षों से निर्भय होकर साहित्य का अलख जगाकर महत्त्वपूर्ण साहित्यिक भूमिका का निर्वहन करते हुए आगे की ओर अग्रसर हैं और बिना ताम झाम पाठकों के ह्रदय को झकझोर कर उनमें मानवीय मूल्यों के अनुरुप मानवीय भावनाओं का संचार करने में अग्रणी।काॅलेज के समय से ही उनके एक से एक सुंदर कालजयी रचना का साक्षी रहा हूॅं मैं। परिस्थिति अनुरुप सरल और सुन्दर शब्दों का चयन इस संग्रह का श्रृंगार है,जो पाठकों के लिए पुस्तक को सहज बनाते हुए पाठक और पुस्तक की परस्पर दूरी को भी कम करती है। यह अनकही,अनूठी और कहीं कहीं उलझती प्रतीत होती हुई सुलझी रचनाओं से सजा संग्रह है,जिसमें कविताएं नहीं कुछ कहते हुए भी गुम सुम होकर बहुत कुछ कह जाती है,जो मन को उद्वेलित और झंकृत कर पाठकों के समक्ष विचार करने के लिए ढ़ेर सारे प्रश्न भी खड़ा कर देता है। उनकी कविता पढ़ने पर ऐसा आभास होता है कि कवि कविता लिखते नहीं,बल्कि शब्दों को गढ़ते हैं,जो स्वत:कविता बनती जाती है।आशा करता हूॅं कि अरुण की लेखनी निर्बाध रुप से अपनी सधी हुई चाल में निरन्तर चलती रहे। इस नव सृजन के लिए अरुण को ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।