राजयोगमहागीता: आत्मज्ञानपरमसत्य: जितेंद्रकमलआनंद ( पोस्ट६८)
सारात्सार::: घनाक्षरी-२/ २१
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आत्मज्ञान परमसत्य , ग्रंथों में ज्ञान नहीं ,
अंतर्मन- समाहित ज्ञान उपहार है ।
उसको या स्वयं को ही पाइए सर्वत्र व्याप्त,
निराकार एक वह ही ,गिरागोपार है ।
आप आत्मा को जानेंगे ,तो सब जान जायेंगे,
आप निर्विचार हैं, तो सब निर्विकार हैं ।
वेदज्ञान अतिरिक्त ऐसा है बहुत कुछ ,
जान जाता जिससे कि सकल संसार है ।।२/ २१
—— जितेंद्रकमलआनंद