राजनैतिक विष
कैसे कैसे पागल नेता,
कुछ भी कहते रहते हैं ।
और हम, पिछलग्गू बन,
सब कुछ सहते रहते है।
होश संभाला जब से हमने,
मिला हमें यही संदेश ।
नेता सब अपना घर भरते,
चाहे जाय भाड़ मे देश ।
एक संघठित ग्राम इकाइ,
टुकड़ों टुकड़ों में टूटे
दलगत राजनीति में फंसकर,
ग्राम एकता भी रूठे ।
भांग पी निरपेक्ष धर्म की,
कुछ दल नेतागण पगलाते
धर्म पंथ को एक बता कर,
जन जनार्दन को बहकाते।
मत जुगाड़्ने के चक्कर में,
विधान सभा के प्रत्याशी
हर हथकण्डा अपनाते हैं,
चल चल के चाल सियासी ।