*राजनीति में विश्वास का संकट (हास्य-व्यंग्य)*
राजनीति में विश्वास का संकट (हास्य-व्यंग्य)
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राजनीति में विश्वास का संकट दिनोंदिन गहराता जा रहा है । यह बात तो सही है कि नेतागण बेपेंदी के लोटे हैं । जिधर चाहे ,जब चाहे लुढ़क गए । कई लोग इन की मेंढ़कों से तुलना करते हैं । कहते हैं हाथ में पकड़ो तो फिसल जाते हैं । बात सही है लेकिन फिर भी नेता की इज्जत तो दो कौड़ी की हो ही रही है । उस पर किसी का विश्वास नहीं हो रहा ,यह सबसे बड़ी समस्या है ।
राज्यों में चुनाव के बाद जब मुख्यमंत्री चुना जाता है और यह बात सदन में तय होना होती है कि सरकार किसकी बनेगी ,तब विधायकों को किस तरह भेड़-बकरी की तरह बसों में ठूँस-ठूँस कर टूर कराने के नाम पर बंधक बनाकर रखा जाता है यह सर्वविदित है । उन्हें मोबाइल फोन से किसी से संपर्क रखने या बात करने की भी स्वतंत्रता नहीं होती । आप सोचिए स्वर्ग में भी अगर किसी को रखा जाए लेकिन जेल जैसी पाबंदियां लग जाएँ, तब बात आनंद की नहीं है लेकिन व्यक्ति के स्वाभिमान को तो चोट पहुंचती ही होगी । नेताओं का तो सचमुच कोई आत्मसम्मान रहा ही नहीं। उनके साथ ऐसा व्यवहार होता है ,जैसे वह बिकाऊ माल हों।
इधर आकर स्थितियां और भी बिगड़ी हैं। अब आप यह बताइए कि चुनाव में नेता से दलाल ने बात की । रुपयों – पैसों के बारे में विचारों का आदान-प्रदान हुआ। अंत में सौदा पट गया । अगले ने रकम की थैली लाकर नेता के हाथ में भी दे दी । नेता ने हां कर दी । मामला पक्का हो गया मगर नेता की दयनीयता पर विचार तो कीजिए ! उसकी जुबान पर किसी को विश्वास नहीं ! उसके कहे हुए की बाजार में कोई कीमत नहीं ! वह किसको वोट देगा ,इस पर किसी का विश्वास नहीं है। इसे कहते हैं विश्वास का संकट !
जिसने नेता को खरीदा है वह कहता है कि हमें तुम्हारी बात का विश्वास नहीं है कि तुम पैसा लेकर भी हमें वोट दोगे ? मतदान क्योंकि गोपनीय होता है ,अतः तुम जाकर हमारे खिलाफ वोट कर दो तो हम क्या करेंगे ? नेता बेचारा हाथ जोड़ता है । कहता है ,जब एक बार पैसा ले लिया तो हम अपनी बात से क्यों मुकरेंगे ? दलाल कहता है ,तुम तो पैदा ही मुकरने के लिए हुए हो । अगर हम से ज्यादा किसी ने पैसा दे दिया तो तुम सौदा उसके पक्ष में कर सकते हो । हमें तुम्हारा विश्वास नहीं है ।
इसी बिंदु पर आकर मतदान के समय नेता के साथ एक हेल्पर अर्थात सहायक भेजा जाता है । सोच कर देखिए कितनी बड़ी बेइज्जती की बात है । नेता अच्छा खासा है किंतु मजबूरी में आंखों पर काला चश्मा चढ़ा कर स्वयं को दिखाई न देने का नाटक करते हुए एक हाथ में छड़ी लेकर चलना पड़ रहा है । दूसरे हाथ को हेल्पर पकड़े हुए हैं अर्थात कह रहा है कि वोट उसी को जाएगा जिसको हम चाहेंगे । एक तरह से बंधक बनाया गया नेता मतदान केंद्र में जाकर सहायक के माध्यम से वोट डालता है। इस तरह वोट उसे पड़ता है ,जिसके पक्ष में नेता ने वायदा किया होता है । इस प्रकरण में नेता पर विश्वास नहीं है अपितु जिस सहायक की सहायता से नेता को वोट डालने पर विवश किया जाता है उस पर विश्वास है । राजनीति का संकट आज उस दोराहे पर खड़ा हो गया है जब किसी को न अपनी पार्टी के नेताओं पर विश्वास है न दूसरी पार्टी के नेताओं पर विश्वास है ।
कई बार लाखों – करोड़ों रुपए खर्च करके भी लोग चुनाव हार जाते हैं । सहायकों की मदद से रणनीति तो बनाई जा सकती है लेकिन चुनाव जीतना जरूरी नहीं होता । कई बार नेता और हेल्पर दोनों मिलकर दगा दे देते हैं और दलाल की लुटिया डूब जाती है । निष्कर्ष यह निकलता है कि सहायक ही सब कुछ नहीं है। सहायक को भी खरीदा जा सकता है । जब दलाल खरीदने के लिए बाजार में आ ही गया है ,तब वह नेता को भी खरीद सकता है और उसके सहायक को भी । फिर कोई क्या कर लेगा ? कोई भी व्यवस्था छिद्र-रहित नहीं होती । कुछ भी कहो ,इस समय ऐसा लगता है कि जैसे हर नेता के गले में एक तख्ती लटकी हुई है जिस पर उसका बाजार भाव अंकित है । खरीदार को खुली छूट है कि वह जाए, रुपयों का भुगतान करे और नेता को हाथ पकड़ कर अपने पक्ष में ले आए ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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