राजनीति और परिवारवाद
वैसे तो परिवारवाद प्रत्येक व्यक्ति के डीएनए में समाया हुआ है लेकिन हमें इसका उपयोग अधिकतर राजनीति में ही देखने को मिलता है । प्रत्येक विपक्षी पार्टियां एक दूसरे पर परिवारवाद का आरोप लगाते नहीं थकते जबकि हम सब वाकिफ है कोई भी पार्टी इससे अछूता नहीं है । पार्टी ही क्यों कोई आदमी इससे अछूता नहीं है । कोई नौकरी हो या पेशा सब पिता अपने पुत्र को उसका अधिकारी मानता है – एक शिक्षक चाहता है कि उसका पुत्र कम से कम शिक्षक बन जाए उसी तरह एक डॉक्टर चाहता है कि उसकी आने वाली पीढ़ी भी डॉक्टर ही बने । वकील , न्यायाधीश , नायक हो या नायिका या हो कोई खिलाड़ी सबकी मंशा एक सी है तो भला राजनैतिक दल क्यों पीछा रहे ? अब बात आती है कि राजनीति में ही इस बात को क्यों ढोया जाता है कि फलां अपने पिता के कारण विधायक , सांसद , मंत्री या मुख्यमंत्री बना । जबकि हम सभी जानते है कि भारत दुनियां का सबसे मजबूत और बड़ा लोकतांत्रिक देश है । यहां राजनीति में कड़ी प्रतिस्पर्धाएं है । एक नेता का पुत्र होने और एक नेता होने में बहुत अंतर होता है । किसी का पुत्र होना ही किसी भी क्षेत्र में सफलता का एक मात्र कारण नहीं होता । हां यदि कोई भी काम यदि विरासत में मिला हो तो उस कार्य को सफल होने मददगार जरूर साबित होता है । हो भी क्यों न एक पीढ़ी ने तो उस उसके लिए संघर्ष किया ही है उसका लाभ भी तो उसे ही मिलेगा । हालिया कुछ राजनीतिक दलों के बयानों और उसके अंदर के परिवारवाद को देखें तो हर तरफ आपको इसका ढेरों उदाहरण मिल जायेंगे कमोबेश हर पार्टियां राजनैतिक विरासत वाले पीढ़ी को ही आगे बढ़ाने में विश्वास रखती है । हो भी क्यों न जिताऊ कैंडिडेट भी तो वही है । अब बात आती है कि जिसका पृष्ठभूमि राजनैतिक न हो उसके लिए क्या राजनीति के रास्ते बंद है ? तो मैं समझता हूं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है । वर्तमान की बात करें तो नरेंद्र मोदी , लालू यादव , रामविलास पासवान हो या हालिया में अरविंद केजरीवाल हो इत्यादि सबने साबित किया है कि विरासत कोई मायने नहीं रखती । दूसरी बात भारत जैसे देश में बिना विरासत वाली पृष्ठभूमि की राजनीति की शुरुआत करने के लिए स्थानीय निकाय के चुनाव आपके लिए बेहतर विकल्प है ।
निष्कर्ष : मेरे दृष्टिकोण से राजनीत में परिवारवाद महज एक आरोप है जिसका फायदा हर राजनैतिक दल एकदुसरे पर आरोप लगाने के लिए करते है ।
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विमल