राजनीति अब धुत्त पड़ी है (नवगीत)
नवगीत _23
राजनीति अब
धुत्त पड़ी है
नेताओं के तलवे चाटे ।
श्रमिक भूख से
तड़प रहे है
खाते कूड़ेदान पराठे ।
औंधे मुँह
गिर पड़ी शराफ़त
मंहगाई मुँह बाए दौड़ी
चौराहों पर
बैठ गरीबी
बेचा करती रोज पकौड़ी
सच्चाई की
देख दुर्दशा
मार ठहाके झूठ हँस रहा
भीगी बिल्ली
सी जनता बस
देख रही है बंदरबांटें ।
शहर छुड़ाता
पीछा अपना
सुबक रही पुरजोर सभ्यता
बैठ प्रगति
रूपी कंधों पर
मुस्काती निर्लज्ज नग्नता
आज जुगनुओं
से रिश्ते जल
उजियारे में बुझे पड़े है
तोड़ सभी
निःस्वार्थ प्रेम को
बाँध रहे नफ़रत की गांठें ।
कार्यालयी
कागज़ को पढ़
परख रहे कीड़े गुणवत्ता
निजी स्वार्थ के
तवे चढ़ाकर
सेंक गए मंहगाई भत्ता
साहब की
कुर्सी पर रिश्वत
अपना चंगुल तेज़ कर रहा
साहब पबजी
खेल सो गए
अभी-अभो लेकर खर्राटे ।
रकमिश सुल्तानपुरी