राजधर्म और सियाराम
प्रजा की स्थिरता बनाये रखने के लिये राजधर्म कितने कठोर निर्णय से गुजर सकता है इसके साक्षी सिर्फ श्रीराम नहीं माँ सीता भी हैं…?
अगर धरतीवरण की सच्चाई को मानते हैं
जहाँ समाज के एक साधारण व्यक्ति के तर्क संगत सवाल को न्याय देने के लिये श्रीराम को अपनी पत्नी का परित्याग करना पड़ा; प्राणों से भी प्यारी पत्नी का क्योंकि राजा पहले प्रजा का,
वहीं माँसीता अपने सामने हाँथ जोड़े खड़ी पूरी अयोध्या को श्रीराम सहित माफ नह़ीं कर पाईं…ये जानते हुये कि अँधेरा मिट चुका…भोर बस होने को है एक कदम बढ़ाते ही…?
पर ये भोर…अस्तित्व पर हुये उस प्रहार का चोट कम नहीं कर पाई जो एक विवाहित स्त्री की सबसे बड़ी आत्मशक्ति उसके पति के राजधर्म के साथ न्याय की वजह से सीता के जीवन में आया था,
संभव है…भविष्य के गर्भ में पल रहे इन सवालों के आभास ने ही श्रीराम को माँ सीता की अग्निपरिक्षा लेने को विवश किया होगा पर सब व्यर्थ,
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जब निर्पराध कोमल मन…एक विवाहित स्त्री की सबसे बड़ी आत्मशक्ति; उसके पति का प्रहार होता है तब
उसके मन में उमड़ते समस्त भावनाओं का ज्वार उसी पल दम तोड़ देता है क्योंकि समर्पण से सिंचित वो धुरी सामाजिक तौर पर अपना बहिष्कार तो सहन सकती है पर उस एक मात्र शक्ति का तिरस्कार नहीं जिसके साथ चलने का निर्णय
सीता के स्वयंवर में सिर्फ सीता और राम ने मिलकर लिया था
उस एक पल में कोमल भाव पर शक्ति का रौद्र भारी है;
खासकर तब जब सिंहासन और वन के बीच भी आत्मिक भावनात्मक पटल पर हमेशा मुस्कुरा कर जीता आया प्रेम…मगन
इसे साधारण तौर पर देखते हैं_ अगर पत्नी को अलग कर भी दें तो माँ की ममता में क्षमता होती है सब भूल जाने की,
मगर नह़ीं…अग्नि में समाहित हो जाने का वो कठोर निर्णय किसी साधारण माँ और पत्नी का नह़ीं था…बहुपत्नी वाले परिवार में सिर्फ और सिर्फ एक पत्नी की परंपरा की शुरूआत करने वाले…कठोर निर्णय से गुजरते राजधर्म के बीच मानवता की स्थापना कर रहे…एक महान राजा की महान रानी का था,
जिन्हें अपनी भावुकता पर नियंत्रण रख…समाज को ये संदेश देना था कि स्त्री कोई वस्तु नह़ीं~समाज में प्रेम सम्मान और समर्पण में बराबर की अधिकारिणी है…
“ईश्वर थे राम और सीता पर धरती पर तो इंसान ही थे”
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समझ के मामले में…मेरे हिस्से की बुद्धि और विवेक से गुजरता मेरा हृदय बस ऐसा मानता है अगर कोई नहीं सहमत तो कोई बात नहीं
चाहे जितना कष्ट हुआ हो नीजी जीवन में, राम और सीता ने कभी भी अपने नीजी सुख के लिये ईश्वरीय शक्ति का उपयोग नहीं किया…उनका सफर धरती पर एक संघर्षशील मानवीय सद्गुणों से युक्त करुणामय मानव और बाद में प्रजापुजक राजा का रहा…
दर्द तो दोनों का बराबर था क्योंकि उनदोनों के प्रेम के बीच कभी कोई नह़ीं था तभी तो आज भी अब भी अमर है सीयाराम का साथ…….।
©दामिनी नारायण सिंह
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