राखी
दीदी,
जानता हूँ इस बार भी तुम नहीं भेज पाओगी, राखी !
पर जब तुम गुजरोगी बाज़ार से,
उन रेशमी डोरियों को, अपनी मखमली आँखों की छुअन से देखती हुई,
तो मन ही मन,
अपने ह्रदय-तारों के अटूट बंधन को,
बांध दोगी मेरी कलाई पर ।
स्नेह के कुंकुम-रोली को,
अपने स्मृति-अश्रुओं से गीला करके
मेरे माथे पर मंगल टीका करते हुए
और अपने वात्सल्यपूर्ण हाथों से,
मेरे मुँह को मीठा कराते हुए,
जब तुम चतुराई से मांग लोगी अपनी भेंट, तब तुम यह भी जानती होगी कि
मैं नहीं दे पाऊंगा तुम्हे,
कोई उपहार अभी,
पर हाँ, मैं अवश्य भेज दूँगा तुम्हारे लिए,
अपने स्नेह की दौलत,
अपने विश्वास की संपत्ति,
और तुम भी हमेशा की तरह
झट से स्वीकार लोगी इसे,
है ना …?
:- राजेन्द्र ‘ऋषि’