रस “काव्य की आत्मा” है !
रस “काव्य की आत्मा” है !
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काव्यात्मक रचना
या कवि की कृति
जो छन्दों की
श्रृंखलाओं में….
विधिवत बाॅंधी जाती !
पर यह काव्य रचना
किसी रस के बिना
अधूरी ही रह जाती !!
श्रव्य काव्य के
पठन एवं श्रवण
व दृश्य काव्य के
दर्शन एवं श्रवण में
जो अलौकिक आनंद
है मिलता !
वही काव्य में
“रस” है कहलाता !
मुख्य रूप से
हिन्दी काव्य में
नौ मान्य रस है होता !!
प्रथम “श्रृंगार रस”
है रसों का राजा !
जो “रति” भाव को दर्शाता !!
इसके भी होते दो प्रकार !
प्रथम संयोग श्रृंगार !
व द्वितीय वियोग श्रृंगार !!
जहाॅं संयोग श्रृंगार में होता
नायक नायिका का मिलन !
वहीं वियोग श्रृंगार में होता
नायक नायिका का बिछुड़न !!
किसी रचना से झलकती जब
“वीरता” जैसे स्थायी भाव !
युद्ध या किसी कठिन कार्य
को करने हेतु
मन में जागृत जो होते
उत्साह के भाव !
वहाॅं पे ही होता
“वीर रस” का प्रादुर्भाव !!
जब किसी काव्य आदि
को पढ़कर हॅंसी आये !
जिस रस का स्थायी भाव
“हास” हो जाये ।
तो वह रस काव्य की
“हास्य रस” कहलाए !!
किसी की निंदा से
जो क्रोध उत्पन्न होता !
स्थायी भाव जिसका
“क्रोध” ही होता !
तो वह रस
“रौद्र रस” है कहलाता !!
किसी भय से
जिस रस की उत्पत्ति होती !
“भय” ही जिस रस के
स्थायी भाव होते !
उस रस को हम सब
“भयानक रस” हैं कहते !!
काव्य में जब हो
ऐसी बात का वर्णन !
पढ़कर या सुनकर जिसे
हो मन में विस्मय के भाव उत्पन्न !
स्थायी भाव जिसका
“आश्चर्य” या “विस्मय” होता !
वही रस “अद्भुत रस” है कहलाता !!
“वीभत्स रस” की गिनती
दुखात्मक रसों में ही होती !
परिणामत: जिस रस के
घृणा, जुगुप्सा, उत्पन्न होती !
“घृणा” व “जुगुप्सा” ही
जिस रस के स्थायी भाव भी होते !
वही रस “वीभत्स रस” हैं कहलाते !!
“करुण रस”, जिसका
स्थायी भाव है “शोक” !
होता जब कभी
किसी अपने का वियोग !
दु:ख या वेदना जब
इससे उत्पन्न होती !
तो वह “करुण रस” का
उदाहरण बन जाती !!
हिन्दी साहित्य में प्रसिद्ध
नौ रसों में “अंतिम रस” ,
जिसका स्थायी भाव ,
“निर्वेद” या “निवृती” होता !
जहाॅं संसार से पूर्ण विरक्ति
का भाव प्रदर्शित होता !
वहाॅं पर निश्चय ही
“शांत रस” छुपा होता !!
छंद, अलंकार के संग रस भी
काव्य रचना का
आवश्यक अवयव होता !
इसीलिए ऐसा कहना
बिल्कुल मुनासिब होगा…
कि रस “काव्य की आत्मा” है!
रस “काव्य की आत्मा” है !!!!!
_ स्वरचित एवं मौलिक ।
© अजित कुमार कर्ण ।
__ किशनगंज ( बिहार )
दिनांक : ११/०६/२०२१.
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