Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
15 Apr 2022 · 7 min read

रस्म की आग

मुन्नी अपनी नन्ही कोमल हथेलियों से दद्दा रामजतन का पाँव हौले-हौले दबा रही थी। रामजतन कोमल नन्हे हाथों का स्पर्श पाकर शनैः शनैः नींद के आगोश में समाता जा रहा था। शीतल बयार के झोंको से नींद गहराती जा रही थी।
“अब रहने भी दे बिटिया, तेरे दद्दा सो गये, चल कुछ रसोई का काम करा ले।” मुन्नी की अम्मा विमला बोल पड़ी।
” चलती हूँ अम्मा………. अभी दद्दा की थकान खत्म नहीं हुई है……..।” कहते हुये मुन्नी के पाँव दबाने का क्रम जारी था।
“……… दद्दा दिन भर कितना काम करते हैं, अम्मा मैं बड़ी हो जाऊँगी ना तो दद्दा को काम नहीं करने दूँगी, तुझे भी नहीं अम्मा।”
मुन्नी के शब्दों से विमला की आँखें सजल हो उठी। इस नन्हीं सी जान को अम्मा दद्दा से कितना लगाव है। आँखों के आगे एक स्वप्न तैर गया……. भविष्य का सपना…….. उसे लगा वह सचमुच बड़ी हो गई है। अम्मा और दद्दा के कलेजे का टुकड़ा मुन्नी समझदार हो गई है, समझदार तो वह छुटपन में भी थी, अम्मा और दद्दा का कष्ट उससे देखा नहीं जाता था और अब तो वह शिक्षित भी हो गई है। दिन भर ऑफिस में स्वयं को फाइलों में व्यस्त रखने के बाद घर लौट कर फिर घर के कामों में व्यस्त हो जाती है। ऐसा लगता है मानो अम्मा और दद्दा के लिये अब कुछ भी काम बाकी‌ नहीं रह गया है। ऐसी बच्ची जन कर विमला धन्य हो गई थी। सदा ईश्वर से दुआ माँगती है कि सभी को ऐसी संतान दे।
दिन सदा एक सा नहीं रहता। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। कभी रात तो कभी दिन, कभी अँधेरा तो कभी उजाला अनवरत चलता रहता है। अचानक एक दिन घोड़े पर सवार एक राजकुमार अपनी राजकुमारी को ले जाने आ गया है। राजकुमारी उसकी बिटिया मुन्नी अपनी माँ के सीने से लगकर चीत्कार कर रही है। विमला के आँसू भी नहीं थम रहे हैं। फिर जैसे ही राजकुमार मुन्नी को घोड़े पर बिठाकर चला, बदहवास विमला घोड़े के पीछे दौड़ पड़ी, चीख पड़ी।
“मुन्नी……” और उसकी स्वप्न श्रृंखला छिन्न भिन्न हो गई।
“अम्मा! क्या हुआ?” मुन्नी दद्दा को सोता हुआ छोड़ कर अम्मा की ओर दौड़ पड़ी।
“आं……कुछ नहीं बिटिया, चल कुछ पढ़ाई लिखाई कर ले, मैं रसोई का काम संभाल लूँगी।” आँखों में छलछला आये आँसुओं को उसने अपने आँचल में समेट लिया था। मुन्नी का नन्हा हृदय अम्मा की पीड़ा को भाँप गया था।
“नहीं अम्मा, पहले रसोई का काम करा लूँगी, फिर पढ़ूँगी।” वह यथासंभव अम्मा को कामों से मुक्ति दिलाना चाह रही थी।
विमला ने मुन्नी को सीने से चिपका लिया। माथे पर प्यार से चूम कर उसने मुन्नी को समझाया- ” जब बड़ी हो जाना फिर काम करना। अभी तो रानी बिटिया छोटी है।”
“अम्मा मैं बड़ी हो जाऊँगी ना तो तुम्हें कोई काम नहीं करने दूँगी, दद्दा को भी‌ नहीं।”
“अच्छा!……. अरे पगली जब तू बड़ी हो जायेगी तब तो तू अपने घर चली जायेगी।”
“क्यों? क्या ये मेरा घर नहीं है?” बाल सुलभ जिज्ञासा बलवती हो उठी थी।”
मुन्नी की जिज्ञासा से विमला के होठों पर एक हल्की सी हँसी तैर गई। उसके चेहरे को सहलाते हुए विमला ने समझाया –“बेटा हर लड़की का दो घर होता है। बचपन और लड़कपन मायके में बीतता है तो यौवन और वृद्धावस्था ससुराल में…।”
विमला को ऐसा प्रतीत हुआ कि दार्शनिक अंदाज में कहे गये ये वक्तव्य नन्हीं मुन्नी नही समझ पायेगी तो उसने अपना अंदाज बदल दिया।
“……..देखा नहीं तूने, मुंशी रामधनी की बिटिया शादी के दिन अपने ससुराल चली गई।”
मुन्नी बिफर कर विमला के आगोश से अलग हो गई। अम्मा दद्दा को छोड़ने की वह कल्पना भी नहीं कर सकती।
“मुझे शादी-वादी नहीं करनी है, तुमलोगों को छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊँगी, कभी नहीं‌ जाऊँगी।”
मुन्नी के बाल सुलभ हठ पर विमला को हँसी आ गई। हँसते हुये वह बोली—“अरे, तेरे चाहने न चाहने से क्या होता है।” व्यवहारिकता एवं यथार्थ से वह परिचित थी।
“मैंने कह दिया ना नहीं जाऊँगी, नहीं जाऊँगी, नहीं जाऊँगी।” और कहते-कहते वह रसॊई की ओर चली गई थी।
विछोह की कल्पना ने विमला के हृदय को भी जैसे झकझोर कर रख दिया था। कैसे वह कलेजे के टुकड़े को स्वयं से अलग कर पायेगी। उसके चले जाने के बाद कौन उसके कामों में हाथ बँटायेगा? कौन उसे दिलासा देगा? ईश्वर ने मात्र यही एक कन्या दिया है उसे। कन्या तो दूसरे के वंश को आगे बढ़ाने के लिये होती है। काश! कोई बेटा होता। सामाजिक रीति रिवाजों से विवश होकर उसे भी एक दिन स्व्यं से मुन्नी‌ को अलग करना पड़ेगा, किसी और के कुल का दीपक जलाने के लिये। जाने कब तक इन्हीं ताने बाने में वह उलझी रही। नीरव वातावरण में रामजतन के खर्राटॆ यदा-कदा गूँज जाते थे, तो कभी रसोई से बरतनों की आवाज आ जाती थी।

—- —- —– —- —- —- —-
शनैः-शनैः काल के साथ कदम से कदम मिलाते हुये मुन्नी बी0ए0 पास कर गई। यौवन के दहलीज पर आ खड़ी हो गई थी वह। परिवेश एवं शिक्षा से उसका बौद्धिक स्तर विकसित हो गया था। विचारों में परिपक्वता आ रही थी। अम्मा दद्दा की मदद करना उसने अपना धर्म बना लिया था। उन की बातों को कभी इन्कार नहीं कर पाती थी वह परंतु जब कभी उसकी शादी की बात चलती, वह शेरनी की भाँति बिफर जाती थी।
“नहीं अम्मा , मैं शादी नहीं करूँगी। अब तो तुम और दद्दा भी कितने कमजोर हो गये हैं। मेरे न रहने पर कौन ख्याल रखेगा?”
यदि मेरी शादी हो गई‌ तो मुझे ससुराल जाना ही पड़ेगा। समाज ने ऐसा रस्म ही क्यों बनाया है कि हर लड़की‌ को अपना घर छोड़कर जाना पड़ता है। एक अंजानी डगर पर, एक अंजाने मंजिल की ओर, एक अजनबी‌ हमसफर के साथ। जाने कैसा होगा वह हमसफर? फिर वह अम्मा और दद्दा की मदद कैसे कर पायेगी? तब तो वह अपने हमसफर के सुख दुख में भागीदार हो जायेगी। नहीं वह अम्मा और दद्दा को नहीं छॊड़ सकती। जिसने जन्म दिया, उसके प्रति क्या कोई दायित्व नहीं। जिसने अब तक कितने कष्टों से पालन पोषण किया, उसे पढ़ा लिखा कर बड़ा किया, क्या इसलिये कि उन्हें मझधार में भटकता छॊड़कर वह अपने मंजिल की ओर चली जाय। छिः कितनी स्वार्थी है वह। नहीं मैं सामाजिक रस्मों को ठुकरा दूँगी। सारी दुनिया छोड़ दूँगी लेकिन अम्मा दद्दा को नहीं। आज उसे स्वयं के लड़की‌ होने पर कुढ़न हो रही थी। कोई भाई भी तो नहीं है जो मेरे न रहने पर अम्मा और दद्दा की परवरिश करे।
“बेटा सब का ख्याल ऊपर वाला रखता है………।” अम्मा के शब्दों ने विचार श्रृंखला को भंग कर दिया था।
“……………सामाजिक रस्मों को कोई ठुकरा सका है क्या? कोई माँ बाप आजीवन अपनी बेटी को अपने पास रख सका है क्या? अम्मा के हाथ उसके सर को हौले-हौले सहला रहे थे।
रस्म …..रीति रिवाज़ …….परम्पराएँ………. मान्यताएँ आदि हथौड़े की तरह उसके मष्तिष्क को चोट पहुँचा रहे थे। बचपन से अम्मा दद्दा को मदद करने का संजोया सपना बिखरने लगता तो हृदय मजबूत हो कर रस्मों के प्रति बागी हो जाता था। पुनः जब रस्मों का बंधन कसता तो उसकी भावनाएँ आहत हो जाती थी। उसकी स्थिति कटे पंख सदृश पक्षी की‌ भाँति हो जाती थी, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती थी। अंततः वही हुआ, जो होता आया है एवं होता रहेगा। मुन्नी को एक अजनबी हमसफर के सुपुर्द कर दिया गया, अंजाने मंजिल की ओर चलने को।
मुन्नी ने पथ परिवर्तन कर लिया था, अपनी भावनाओं को चोटिल कर, परंतु भावनाएँ मरी नहीं थी। जब कभी उसे अम्मा या दद्दा के बीमारी की सूचना मिलती तो पागल हो जाती थी। वहाँ से वह मदद करे भी तो क्या करे, क्या सेवा करे। असमंजस की स्थिति में नैन बरस पड़ते थे। रस्मों के बंधन उसकी आकांक्षाओं का गला प्रतिदिन कसते जा रहे थे। उसे प्रतीत हो रहा था कि हर नारी की स्थिति अधर में लटके त्रिशंकु की तरह होती है जो न धरती पर आ सकती है और न अंतरिक्ष में जा सकती है। मायके और ससुराल के पाटों में पिस जाती‌ है नारी। मन तो करता था, पंख लग जाय, उड़कर वह अम्मा दद्दा के पास पहुँच जाय। ममता और दुलार के उस सघन छाँव तले, जहाँ उसने बचपन और लड़कपन ब्यतीत किया। क्या कुछ ऐसा कर दे कि अम्मा और दद्दा ने जो कुछ उसके लिये किया उसका कुछ लेशमात्र भी चुकता हो जाय। किंतु …… वाह रे रस्म, वाह रे परंपरा।
एकांत में ऐसे विचारों से अनायास कपोल अश्रु से भीग कर सूख जाते थे। रस्मों के बंधन में जकड़ी मुन्नी‌ विचारों को दूर फटक कर पुनः पति और बच्चों की सेवा में लग जाती थी। मन में जबरदस्ती इस भावना को बिठाना पड़ता था कि अम्मा और दद्दा को भूल जाओ, पति और बच्चे की सेवा ही धर्म है।
एक दिन अचानक उसका पति बदहवास दौड़ता हुआ आया और उसने बताया कि दद्दा गुजर गये, अम्मा सदमा न बर्दाश्त कर सकी और वह भी परलोक सिधार गई। मानो बम फट गया, मुन्नी चीख पड़ी और फिर वह विवेकशून्य हो गई। आँखें गगन में उन आत्माओं को एकटक निहारने लगीं जो अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर अपने विश्राम स्थल की ओर रवाना हो गये थे। रस्मों की तपिश में उसकी आकांक्षाएँ दम तोड़ चुकी थी। उसे महसूस हो रहा था कि परंपराओं के बंधन में नारी कितनी असहाय हो जाती है।

———— भागीरथ प्रसाद

Language: Hindi
1 Like · 234 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
गौरैया
गौरैया
Dr.Pratibha Prakash
उन्हें क्या सज़ा मिली है, जो गुनाह कर रहे हैं
उन्हें क्या सज़ा मिली है, जो गुनाह कर रहे हैं
Shweta Soni
कामयाबी का जाम।
कामयाबी का जाम।
Rj Anand Prajapati
साँप का जहर
साँप का जहर
मनोज कर्ण
भस्मासुर
भस्मासुर
आनन्द मिश्र
कभी ना अपने लिए जीया मैं…..
कभी ना अपने लिए जीया मैं…..
AVINASH (Avi...) MEHRA
■ संडे इज़ द फंडे...😊
■ संडे इज़ द फंडे...😊
*प्रणय प्रभात*
दस्तावेज बोलते हैं (शोध-लेख)
दस्तावेज बोलते हैं (शोध-लेख)
Ravi Prakash
"आय और उम्र"
Dr. Kishan tandon kranti
भले वो चाँद के जैसा नही है।
भले वो चाँद के जैसा नही है।
Shah Alam Hindustani
3156.*पूर्णिका*
3156.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
तेरे लिखे में आग लगे / © MUSAFIR BAITHA
तेरे लिखे में आग लगे / © MUSAFIR BAITHA
Dr MusafiR BaithA
प्रीतम के दोहे
प्रीतम के दोहे
आर.एस. 'प्रीतम'
न दिल किसी का दुखाना चाहिए
न दिल किसी का दुखाना चाहिए
नूरफातिमा खातून नूरी
वीरगति सैनिक
वीरगति सैनिक
नील पदम् Deepak Kumar Srivastava (दीपक )(Neel Padam)
अपनी घड़ी उतार कर किसी को तोहफे ना देना...
अपनी घड़ी उतार कर किसी को तोहफे ना देना...
shabina. Naaz
ओस की बूंद
ओस की बूंद
RAKESH RAKESH
इंसान कहीं का भी नहीं रहता, गर दिल बंजर हो जाए।
इंसान कहीं का भी नहीं रहता, गर दिल बंजर हो जाए।
Monika Verma
भगवन नाम
भगवन नाम
लक्ष्मी सिंह
काजल
काजल
SHAMA PARVEEN
याचना
याचना
Suryakant Dwivedi
निकले थे चांद की तलाश में
निकले थे चांद की तलाश में
Dushyant Kumar Patel
तेरी यादों ने इस ओर आना छोड़ दिया है
तेरी यादों ने इस ओर आना छोड़ दिया है
Bhupendra Rawat
मातृ दिवस या मात्र दिवस ?
मातृ दिवस या मात्र दिवस ?
विशाल शुक्ल
जीना सीखा
जीना सीखा
VINOD CHAUHAN
আমায় নূপুর করে পরাও কন্যা দুই চরণে তোমার
আমায় নূপুর করে পরাও কন্যা দুই চরণে তোমার
Arghyadeep Chakraborty
अरदास मेरी वो
अरदास मेरी वो
Mamta Rani
Go wherever, but only so far,
Go wherever, but only so far,"
पूर्वार्थ
किताबों वाले दिन
किताबों वाले दिन
Kanchan Khanna
জীবনের অর্থ এক এক জনের কাছে এক এক রকম। জীবনের অর্থ হল আপনার
জীবনের অর্থ এক এক জনের কাছে এক এক রকম। জীবনের অর্থ হল আপনার
Sakhawat Jisan
Loading...