रस्ता मिला न मंज़िल रहबर की रहबरी में
रस्ता मिला न मंज़िल रहबर की रहबरी में ।
हम यूँ भटक रहे हैं सहरा-ए-जिंदगी में ।।
तुम तैर कर तो देखो सूखी हुई नदी में ।
फर्क़ आएगा समझ में खुश्की में और तरी में ।।
शौक़-ए-तलब की शायद मेराज हो गई है ।
दीवाना खो गया है महबूब की गली में ।।
फूलों की खुशबूओं से महरूम है जो अब तक ।
वह शाख़ आ गई है एहसास-ए-कमतरी में ।।
खुशियाँ मना रहे हैं कंदील के उजाले ।
हम आ गए हैं जब से आगोश-ए-तीरगी में ।।
साग़र में और सुबू में पाई कहाँ वो लज्ज़त ।
जो लुत्फ़ हमने पाया आँखों से मैकशी में ।।
जिस वक्त मेरी आँखें देखेंगी उस के जलवे ।
हो जाएगा इज़ाफ़ा आँखों की रौशनी में ।।
कहते हैं ये नजूमी पढ़ कर किताब-ए-हस्ती ।
नाकामियां लिखी हैं ‘ख़ालिद’ की जिंदगी में ।।