रमेशराज की पेड़ विषयक मुक्तछंद कविताएँ
-मुक्तछंद-
।। नदी है कितनी महान।।
नदी सींचती है / खेत
जलती हुई रेत
नदी बूंद-बूंद रिसती है
पेड़ पौधों की जड़ों में
नदी गुजरती है
पेड़ों के भीतर से
एक हरापन छोड़ती हुई
पेड़ों को
वसंत से जोड़ती हुई |
पेड़-पौधों का लहलहाना
सार्थकता है नदी की
नदी करती है
मुक्त हाथ से जलदान
नदी नहीं चाहती
कोई प्यासा रहे
नदी है कितनी महान
+रमेशराज
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|| पेड़ नंगे होते है ||
पेड़ झरते हैं / लगातार
वसंत के लिए |
इस तरह पेड़ों का नंगा होना
वंसत की प्रतीक्षा है
पेड़ों के लिए |
वंसत आता है
पेड़ों को इन्द्रधनुष रगों में
रंगता हुआ
पेड़ पीते हैं / धूप
जड़ें सोखती हैं / पानी
पेड़ों के अन्दर
लहलहाता है / हरापन |
पेड़ छोड़ते हैं / सुखतुल्ले
फुनगियां फूलों से लद जाती हैं
पत्तियां फागगीत गाती हैं |
पेड़ एक छाता है बड़ा-सा
सबको धूप-बारिश से बचाता हुआ
पेड़ साधु है अपनी तपस्या से
इन्द्रदेव को रिझाता हुआ |
पेड़ / बुलाते है सावन
कजरारे बादल की बूंदों की रिमझिम
पेड़ हमें देते हैं
फल फूल छाया वंसत
पेड़ काटना अपने ही
पांव कुल्हाड़ी मारना है
हमारे मित्र हैं / पेड़
सुखसमृद्धि से हमें जोड़ते हुए।
+रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। गिद्ध ।।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
चहचहाती चिडि़याओं के बार में
कुछ भी नहीं सोचते।
वे सोचते हैं कड़कड़ाते जाडे़ की
खूबसूरत चालों है बारे में
जबकि मौसम लू की स्टेशनगनें दागता है,
या कोई प्यासा परिन्दा
पानी की तलाश में इधर-उधर भागता है।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
कोई दिलचस्पी नहीं रखते
पार्क में खेलते हुए बच्चे
और उनकी गेंद के बीच।
वे दिलचस्पी रखते हैं इस बात में
कि एक न एक दिन पार्क में
कोई भेडि़या घुस आयेगा
और किसी न किसी बच्चे को
घायल कर जायेगा।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
मक्का या बाजरे की
पकी हुई फसल को
नहीं निहारते,
वे निहारते है मचान पर बैठे हुए
आदमी की गिलोल।
वे तलाशते हैं ताजा गोश्त
आदमी की गिलोल और
घायल परिन्दे की उड़ान के बीच।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
रेल दुर्घटना से लेकर विमान दुर्घटना पर
कोई शोक प्रस्ताव नहीं रखते,
वे रखते हैं
लाशों पर अपनी रक्तसनी चौंच।
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध
चर्चाए करते हैं
बहेलिये, भेडि़ये, बाजों के बारे में
बड़े ही चाव के साथ,
वे हर चीज को देखना चाहते हैं
एक घाव के साथ।
पीपल जो गिद्धों की संसद है-
वे उस पर बीट करते हैं,
और फिर वहीं से मांस की तलाश में
उड़ानें भरते हैं।
बड़ी अदा से मुस्कराते हैं
‘समाज मुर्दाबाद’ के
नारे लगाते हैं
पीपल के पेड़ पर बैठे हुए गिद्ध।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। मासूम चिडि़याएं ।।
पेड़ होता जा रहा है
चालाक और चिड़ीमार।
मासूम चिडि़याएं
उसकी साजिशों की शिकार
हो जाती हैं बार-बार।
चिडि़याएं बस इतना जानती हैं कि-
पेड़ खड़ा उनका आका है
वह उन्हें छाया और फल देता है
उनके घौसलों की
हिफाजत करता है।
चिडि़याएं नहीं जानतीं कि-
जब किसी चील या बाज की
खूनी इरादों से भरी पड़ी हुई
कोई काली छाया उन पर पड़ती है
तो इस साजिश में
पेड़ की भी साझेदारी होती है।
चील और बाज से
चिडि़यों का मांस वसूलता है
चौथ के रूप में पेड़।
पेड़ के नुकीली चोंच
और पंजे नहीं होते।
हां उसके चिडि़यों के खून का
स्वाद चखने वाली
जीभ जरूर निकल आई है।
चिडि़याएं नहीं पहचानती
उस खूनी जीभ को।
चिडि़याएं बस इतना जानती हैं कि-
पेड़ उनका आका है
वह उन्हें छाया और फल देता है
उनके घौंसले महफूज रखता है।
-रमेशराज
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।। सोचता है पेड़ ।।
कितना खुश होता है पेड़
जब कोई चिडि़या उस पर घोंसला बनाती है
उसकी शाखों पर चहचहाती है
बंसत गीत गाती है।
पेड़ और ज्यादा
लहराता है / हरा होता है
चिडि़या के घोंसले
और उसके नवजात शिशु के बीच।
पेड़ दुलारता है / पुचकारता है
चिडि़या और शिशु को,
पूरे जोश के साथ खिलखिलाते हुए।
जब पेड़ की घनी शाखों पर
कोई बाज उतरता है
अपने खूनी इरादे लिए हुए
तो पेड़ बजाता है
बेतहाशा पत्तियों के सायरन
चिडि़यों को
अप्रत्याशित खतरे से सावधान करते हुए।
पेड़ उड़ा देता है एक-एक चिडि़या को
चिड़ीमार बाज की गिरफ्त के परे।
पर बार-बार सोचता है पेड़
वह चिडि़या के
उन नवजात शिशुओं का क्या करे
जिन्हें न तो चिडि़या
अपने साथ ले जा सकती हैं
और न वह उन्हें
बाज के खूनी पंजों से बचा सकता है।
-रमेशराज
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Rameshraj, 15/109, Isanagar, Aligarh