रमन्ते सर्वत्र इति रामः
रमन्ते सर्वत्र इति रामः
देख, देख, तू देख ले बंदे,
फिर से अरि ललकारा है,
कहता राम जब आये मंदिर,
अयोध्या फिर,तू क्यूँ हारा है।
सहिष्णुता की भी सीमा होती,
क्रोध में फुटा गुब्बारा है,
कहता अब वो राम पराजित,
तू बेबस और गंवारा है…
समय अतीत की बरबस यादें,
मुगलकाल संग हैरान हुई थी,
राममंदिर देख,बाबर की नजरें,
मीर बाकी संग कुफरान हुई थी।
अयोध्या की तब ये पावन धरती,
सरयु तट पर लहुलुहान हुई थी,
इतिहास पलट कर देख ले बंदे,
भारत माँ को,ये ना गवारा है ।
कहता अब वो राम पराजित,
तू बेबस और गंवारा है…
मातृभूमि हिन्दुस्तान धरा है,
सदियों सदियों से ही न्यारा है,
राम है जीवन,राम है दर्शन,
राम से अहं भी हारा है।
राम सहिष्णु सिन्धु के तट पर,
वाण तुणीर से ललकारा है।
कलियुग अंत निकट क्या बंदे,
जो राम का अस्तित्व नकारा है…?
कहता अब वो राम पराजित,
तू बेबस और गंवारा है…
ह्रदये रमन्ति इति रामः
रमन्ते सर्वत्र इति रामः।
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०७/०७/२०२४
आषाढ़ ,शुक्ल पक्ष, द्वितीया ,रविवार
विक्रम संवत २०८१
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