रमणी
सन्नाटा लगा है फैलने चहुँ ओर
रमणी बैठि है व्याकुल नदी के छोर
सौम्या शांत नैसर्गिक छटा है खास
सिकुड़ी सोचती दिखता न कोई शोर
बहती धार नदियाँ की कहे कुछ आज
नाविक आ किधर है मेरा न कोई जोर
तकती राह इतनी थक गई हूँ मैं यार
नौका ले चला आ तू माँगू मोर
कितनी देर की है देख नभ है सूर्य
भारी छन रहा गिनती करूँ मैं पोर