रतजगा
जाने क्यों रातों को नींद नहीं आती है ,
सारी रात करवटों में बदल जाती हैं ।
तारे गिन गिन रात गुजारते है हम ,
सारी रात आंखों में गुजर जाती हैं ।
कोई ख्याल ज़हन में आ जाए बस,
फिर उसी के जाल में फंस जाती है।
कोई भुला हुआ फसाना याद आया ,
और हमसे नींद कोसों दूर हो जाती है।
कभी कोई डर और फिक्र घेर ले जब,
तब दिल की बेचैनी और बढ़ जाती है।
तन के दर्द की दवा तो मयस्सर हो जाए,
मगर दिल के दर्द की दवा नहीं हो पाती है।
सारा जहां तो नींद के आगोश में होता है,
जाने हमसे नींद क्यों दूर भाग जाती है।
कभी कभी तो कोई अधूरा ख्वाब सताता है,
जिसकी ताबीर को जिस्त अब भी तरसती है।
गनीमत होगा आखिरी नींद मयस्सर हो जाए,
वरना जिंदगी तो रतजगों में गुजरने लगती है।
ना जाने यह रतजगे हमारे नसीब में क्यों है?
“अनु” यह सवाल अपने खुदा से पूछती है।